मैं ग़ज़ल का बदन सँवारता हूँ
जब तुम्हें पन्नों पर उतारता हूँ
वहाँ तक जाती नइँ कोई आवाज़
सो उसे चीख कर पुकारता हूँ
रंगों से दोस्ती नहीं रखता
और फूलों पे जान वारता हूँ
तेरे क़दमों में रख के सिर अपना
पैर आकाश में पसारता हूँ
ख़्वाब में जौन एलिया होकर
नींद में फ़ारिहा पुकारता हूँ
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