"मुलाक़ात" - ZARKHEZ

"मुलाक़ात"

किस तरह तुझको बतलाऊँ
जब भी तुझसे मिल कर लौटा
कितने तीर चले हैं मुझ पर
कितने सपने चाक हुए हैं
किस तरह से ख़ुद को समेटा
कैसे तुझसे ज़ख़्म छुपाए
लम्हा-लम्हा मौसम-मौसम
इक वहशत थी तारी मुझपर
एक चुभन सी साथ थी हर दम
लेकिन फिर भी तुझसे मिलने
हँसते हँसते आ जाता हूँ

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