ये शफ़क़ शाम ढल रही होगी
और वो छत पर टहल रही होगी
लग गई होगी चोट पैरों में
रेत पर फिर उछल रही होगी
आज फिर घूरा होगा लड़कों ने
सायकिल में टहल रही होगी
कर रही होगी याद फिर मुझको
शम'अ बनकर वो जल रही होगी
सब लफ़ंगे उसे ही छेड़ेंगे
जब गली से निकल रही होगी
ग़लती करके छिपा रही होगी
तिफ़्ल जैसे मचल रही होगी
नींद आती न होगी रातों को
करवटें ही बदल रही होगी
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