हम क्यों मिलें किसी भी बदन के अमीर से

  - A R Sahil "Aleeg"

हम क्यों मिलें किसी भी बदन के अमीर से
अपना तो सिर्फ़ रब्त है ज़ात-ए-फ़क़ीर से

जलते हुए चराग़ों से ये पूछती है शब
तुम किस तरह बचोगे अँधेरे के तीर से

भाया है रंग ख़ून का हर आदमी को अब
होली को खेले कौन गुलाल-ओ-अबीर से

ऐसा न हो कि आप जला लें वुजूद को
क्यों छेड़छाड़ करते हैं मेरे ज़मीर से

जब तक है रूह जिस्म में उठती रहेंगी बस
तौहीद की शहादतें वक़्त-ए-अख़ीर से

माना कि बँट गए हैं वतन खींच कर लकीर
क्या दिल भी बँट गए हैं बता इक लकीर से

इक ओर इश्क़ वाले हैं सीने को खोलकर
इक ओर हुस्न लैस है नज़रों के तीर से

पड़ कर हुए हैं इश्क़ में हम मर्सिया-निगार
सीखा नहीं हुनर ये अनीस-ओ-दबीर से

कहने को कुछ भी आप कहें इसकी शान में
'साहिल' ग़ज़ल का नाम तो ज़िंदा है मीर से

  - A R Sahil "Aleeg"

More by A R Sahil "Aleeg"

As you were reading Shayari by A R Sahil "Aleeg"

Similar Writers

our suggestion based on A R Sahil "Aleeg"

Similar Moods

As you were reading undefined Shayari