जब कोई ग़ज़ल बह्र में होते हुए भी ख़ारिज हो जाए तो शायर के दिल में लगभग उतना ही दुःख होता है जितना माशूका के रूठ जाने से होता है। कहने का मतलब ये है कि एक छोटी सी ग़लती जब ग़ज़ल को ख़ारिज करवाती है तो शायर को बड़ी ठेस पहुँचती है और पहुँचे भी क्यों नहीं? आख़िर मेहनत और दिल से कही बात का ख़ारिज हो जाना मामूली नहीं है। इस हादसे से बचने के लिए कुछ कोशिशें की जा सकती हैं जिनमें से रदीफ़ और क़ाफ़िया का दोष निवारण करना सबसे पहला है।
उम्मीद है पिछले Blog पढ़कर आप यह जान गये होंगे ख़याल से ग़ज़ल कैसे बनती है, इस ब्लॉग में हम जानेंगे ग़ज़ल के कुछ ख़ास दोष और उनके निवारण का तरीक़ा।
अमूमन ग़ज़ल में दो तरह के दोष देखे जाते हैं। रदीफ़ दोष तथा क़ाफ़िया दोष।
पिछले Blog ( ख़याल से ग़ज़ल तक ) में आपनें देखा होगा कि ख़याल को बहर में लाने से पहले यह तय कर लेना चाहिए रदीफ़ और क़ाफ़िया क्या रहेंगे? जो भी रदीफ़ और क़ाफ़िया रहे दोषमुक्त होना चाहिए तब ही बहर की ओर बढ़ा जा सकता है।
रदीफ़ दोष
रदीफ़ में वैसे तो कोई ख़ास दोष नहीं होता है, बिना रदीफ़ के भी ग़ज़ल हो सकती है लेकिन कुछ मामूली बातें हैं जिन्हें ज़हन में रखें तो रदीफ़ में दोष होने की गुंज़ाइश न के बराबर हो जाती है।
सबसे ख़ास बात तो यही कि रदीफ़ और क़ाफ़िया कहाँ रहेंगे और कहाँ नहीं? -
- जहाँ रदीफ़ हो वहाँ क़ाफ़िया का होना भी ज़रूरी है, बिना क़ाफ़िया के रदीफ़ का कोई वजूद नहीं रहता।
- मतला यानी ग़ज़ल के पहले शे'र के दोनों मिसरों (पंक्तियों) में रदीफ़ और क़ाफ़िया का होना ज़रूरी है। हुस्न मतला यानी किसी ग़ज़ल में एक से अधिक मतला हो तो उसमें भी यही शर्त रहेगी।
- मतले के बाद के सभी अश'आर में सिर्फ़ मिसरा-ए-सानी (दूसरी पंक्ति) में रदीफ़-क़ाफ़िया होंगे।
- मतले के अलावा किसी भी शे'र में मिसरा-ए-उला (पहली पंक्ति) के आख़िर में रदीफ़ या रदीफ़ के हिस्से की मौजूदगी को दोष माना जाता है क्योंकि ऐसा करने पर वह शे'र ग़ज़ल का मतला होने का भ्रम पैदा कर सकता है।
क़ाफ़िया दोष
क़ाफ़िया दोष दो तरह से हो सकता है। पहला जब क़ाफ़िया न मिल रहा हो, इसे हम सामान्य क़ाफ़िया दोष कह सकते हैं। दूसरा जब क़ाफ़िया मिल रहा हो लेकिन वह यौगिक शब्द से बना हो जिसके मूल शब्द को देखा जाए तो वे हम-क़ाफ़िया नहीं हो रहे हों।
दोनों तरह के क़ाफ़िया दोष देखने से पहले हम क़ाफ़िया से जुड़ी कुछ ज़रूरी बाते जान लेते हैं -
क़ाफ़िया मिलना और हम-क़ाफ़िया होना एक ही बात है, यदि मैं कहता हूँ कोई दो शब्द हम-क़ाफ़िया हैं इसका मतलब ये कि हम उन्हें साथ में क़ाफ़िया के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं।
क़ाफ़िया की पहली शर्त तो यही है कि मतले में जो तुकांत लिया गया है उसे पूरी ग़ज़ल में निभाया जाए।
यहाँ "तुकांत" शब्द का इस्तेमाल किस चीज़ के लिए किया गया है, आइए Detail में समझते हैं -
किन्हीं दो शब्दों के क़ाफ़िया यानी Rhyming में होने का मतलब है उनका उच्चारण मिलता-जुलता हो या कहें कि उनका अंत एक जैसे अक्षरों या एक जैसी मात्राओं से हो रहा हो। Example देखिए -
बादल, आँचल, पागल, कल, चल
ये सब हम-क़ाफ़िया हैं। आप गौर करें तो पाएंगे इनमें कोई ख़ास बात है जो इन सबमें है। इन सबके आख़िर में "अल" मौजूद है। यही तुकांत कहलाता है।
बाद् + अल
पाग् + अल
क् + अल
च् + अल
"अल" की मौजूदगी की वजह से ये शब्द हम-क़ाफ़िया हो सके हैं इसलिए हम इन्हें नाम देते हुए "अल" तुकांत के क़ाफ़िया कह सकते हैं, ऐसा करने से हमें यह सहूलियत मिलेगी कि अन्य किसी शब्द जिसके अंत में "अल" आ रहा हो उसे हम इन शब्दों के साथ शामिल कर पाएंगे और इस तरह से हम अलग-अलग तरह के क़ाफ़िया शब्दों को तुकांत की अलग-अलग किस्मों में छाँट सकते हैं। अब हम कुछ मिलते जुलते शब्दों में से हम-क़ाफ़िया शब्द यानी एक ही तुकांत वाले शब्दों को अलग-अलग छाँट कर देखते हैं-
मिलते जुलते शब्द = मुश्किल, घायल, यारी, माहौल, आँचल, दिल, तौल, खोल, मिल, बोल, काजल, पानी
इल तुकांत = मुश्किल, दिल, मिल
अल तुकांत = घायल, आँचल, काजल
औल तुकांत = माहौल, तौल
ओल तुकांत = खोल, बोल
ई तुकांत = यारी, पानी
यदि हम गौर करें तो यह जानेंगे कि सभी तुकांत का पहला अक्षर एक स्वर है जिसके बाद कोई व्यंजन आ सकता है।
यदि हम इस तरह से शब्दों को उनके तुकांत की किस्म के तौर पर छाँटना सीख गए तो हम क़ाफ़िया दोष से आसानी से बच सकते हैं।
सामान्य क़ाफ़िया दोष
Example के साथ ही समझते हैं -
यदि हम "मुश्किल" और "पागल" को क़ाफ़िया लेंगे तो क़ाफ़िया दोष माना जाएगा। क्योंकि मुश्किल में तुकांत "इल" है जबकि पागल में तुकांत "अल" है।
अब फिर से बात करते हैं क़ाफ़िया की पहली शर्त यानी "मतले में जो तुकांत लिया गया है उसे ही पूरी ग़ज़ल में निभाया जाना चाहिए" के बारे में।
यानी अगर हमनें मतले में "बीमारी" और "तैयारी" को क़ाफ़िया के तौर पर लिया है (दोनों में तुकांत "आरी" है) तो हम इस ग़ज़ल के अन्य शे'र में भी यही क़ाफ़िया निभाने के लिए पाबन्द हो जाते हैं। अब हम "पानी" (जिसने तुकांत "ई" है जो कि बीमारी और तैयारी में भी है) को क़ाफ़िया नहीं ले सकते क्योंकि मैं पहले भी बता चुका हूँ मतला ग़ज़ल की जड़ होती है, जैसी जड़ वैसा पौधा। हमनें मतले में "आरी" तुकांत बांध दिया है तो अब हमें इसे हर शे'र में निभाना होगा।
ऐसा करने से हम पाबन्दी में आ जाते हैं, जिससे क़ाफ़िया के शब्दों की कमी हो जाती है और एक ही शब्द को एक से ज़्यादा बार क़ाफ़िया लेना पड़ता है जो ग़ज़ल का हुस्न ख़राब कर सकता है। इससे बचने के लिए कोशिश करें कि ऐसे शब्दों को मतले में क़ाफ़िया रखें जिनके हम-क़ाफ़िया शब्द आसानी से मिल जाए।
अगर हम मतले में "बीमारी" के साथ "पानी" को क़ाफ़िया ले लेते हैं तो यहाँ तुकांत "ई" हो जाएगा और इससे हम अगले शे'र में "ई" तुकांत वाले शब्दों को क़ाफ़िया ले पाएंगे और इस तरह हम पाबन्दी को थोड़ा कम कर सकते हैं।
यौगिक शब्द की वजह से क़ाफ़िया दोष
तुकांत समान नहीं होने पर सामान्य क़ाफ़िया दोष होता है, यही दोष जब यौगिक शब्द में होता है तब हमें दोष न होने का भ्रम होता है, और यही भ्रम यौगिक शब्द की वजह से क़ाफ़िया दोष पैदा करता है।
मिसाल के तौर पर देखें -
"चलता" और "पढ़ता" दोनों शब्द हम-क़ाफ़िया नहीं हैं फिर भी इनके हम-क़ाफ़िया होने का भ्रम पैदा होता है, इस भ्रम में ये मान लिया जाता है कि "अता" समतुकांत के रूप में है। ऐसा मान लेने से क़ाफ़िया दोष हो सकता है। कारण समझिए -
"पढ़ता" एक यौगिक शब्द है, जिसका मूल शब्द "पढ़" है जिसमें प्रत्यय "ता" जोड़ने से यह प्राप्त हुआ है और इसी तरह "चलता" का मूल शब्द "चल" है और प्रत्यय "ता" है। ख़ास बात यह है कि दोनों को हम-क़ाफ़िया लेने पर प्रत्यय अपने दोहराव की वजह से रदीफ़ का हिस्सा हो जाता है और यदि प्रत्यय को रदीफ़ का हिस्सा मान लें तो मूल शब्द "पढ़" तथा "चल" हम-क़ाफ़िया नहीं है, इस कारण से इसे दोष माना जाता है।
लेकिन यदि प्रत्यय हटा देने के बाद बचे मूल शब्द आपस में हम-क़ाफ़िया हो रहे हों तब ये दोष नहीं होता। जैसे- करता, मरता, डरता।
इस दोष से बचने का एक ही बढ़िया तरीक़ा है- यदि दोनों शब्द यौगिक हैं और दोनों में एक ही प्रत्यय है तो उसे रदीफ़ का हिस्सा मान कर क़ाफ़िया में बचे मूल शब्द का तुकांत जाँच लेना चाहिए, यदि मूल शब्दों में समतुकांत है तो दोष नहीं होगा।
शुक्रिया!
Sanjay Bhat
👌