कभी उस पार जाता हूँ तो दरिया रोक लेता है
मुझे तेरी कहानी का वो क़िस्सा रोक लेता है
नहीं मालूम शहज़ादी से क्या कहता है शहज़ादा
मुझे जब अक्स दिखता है तो शीशा रोक लेता है
वहीं लटका हुआ है बाप का गमछा नहीं उतरा
उतारूँ मैं अगर इसको तो पँखा रोक लेता है
तेरी यादों की ख़ुशबू खिड़कियों से रोज़ आती है
मैं कहता हूँ जो जाने को तो कमरा रोक लेता है
मुसाफ़िर हूँ पुराना इश्क़ मुझको याद आता है
गली से जब गुज़रता हूँ तो रस्ता रोक लेता है
बता कैसे दिखे मुझको वो छत से चाँद सा मुखड़ा
ये मौसम सर्दियों का है कुहासा रोक लेता है
ग़ज़ल को छोड़कर जब भी नया मैं शेर लिखता हूँ
ग़ज़ल का फिर वही मिसरा अधूरा रोक लेता है
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