ग़मो से चूर हूँ लेकिन तुम्हारा क़द्र-दाँ हूँ मैं
मुझे यूँ लूटने वालों तुम्हीं पर मेहरबाँ हूँ मैं
बनाया जिनको मैंने शम्स मेरे इक शरारे से
मेरे बारे में वो कहते बचा केवल धुआँ हूँ मैं
वो जाने कौन सी क़ुब्बत पे कहते बेवफ़ा मुझको
चमन जिसमें खिले है वो उसी का बागबाँ हूँ मैं
गुलों क्यों फिर रहे हो बेवजह ही ख़ौफ़ में आकर
मिटा दूँ अपने गुलशन को नहीं वो बागबाँ हूँ मैं
तेरी रगरग में बहता हूँ मैं दरिया इश्क़ का बनकर
मिटा पाए जो तू मुझको नहीं ऐसा निशाँ हूँ मैं
अदद भर इक कफ़न ले जिस्म मेरा दफ़्न होगा बस
भला क्यों सल्तनत चाहूँ ग़रीबी का मकाँ हूँ मैं
ये रब की बन्दगी का दम जो मेरी सच्ची ताक़त है
कि पावन नीर गंगा का ख़ुदा की इक अज़ाँ हूँ मैं
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