मेरी आस्तीन में जो पलते हैं
साँप बनके ही क्यों निकलते हैं
मैं ने सबकुछ लुटा दिया जिनको
मेरी ख़ातिर वो विष उगलते हैं
इल्म बेशक़ न रंच भर जिनको
सबसे ज़्यादा वही उछलते हैं
ख़ुद से ज़्यादा यक़ीन था जिनपे
पाँव मेरा वही कुचलते हैं
छोड़ा जिनको था केंचुआ कहकर
अब वो अज़गर बने टहलते हैं
मेरे उपवन में ही उगे थे वो
'नित्य' काँटे मुझे जो खलते हैं
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