यादों से तेरी लेके इजाज़त कभी कभी
रहता हूँ मैं भी ख़ुद में सलामत कभी कभी
वैसे तो उल्फ़तों ने सँवारा है ये जहान
लाज़िम रही है फिर भी अदावत कभी कभी
धोखे हज़ारों खा के कलेजा मेरा है चाक
फिर भी तड़प ही उठती ज़रूरत कभी कभी
बोए तो आम मैं ने मगर पाए हैं बबूल
क़ुदरत भी ढाती यूँ ही क़यामत कभी कभी
ख़ंजर से पीठ पर जो किया कायराना वार
काम आएगा तुम्हें ये निहायत कभी कभी
कितनी ऊँचाइयों पे पहुँच जाओ तुम हुज़ूर
याद आएगी तुम्हें वो हक़ीक़त कभी कभी
दूँगा न बद्दुआएँ कभी नित्य मैं तुम्हें
बेशक़ बढ़ेगी दर्द की आफ़त कभी कभी
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