न राजा न कोई फ़क़ीर हूँ
मैं रंज-ओ-अलम की लकीर हूँ
जो अपनी नज़र में कबीर हूँ
सो उसकी नज़र में हक़ीर हूँ
जो दिल में लगा कोई तीर हूँ
ग़मे-दिल में दर्द-ए-कसीर हूँ
मुझे दिल की नज़रों से देखना
बहुत कुछ दिखेगा, ज़मीर हूँ
यहाँ अपनी मर्ज़ी चला हूँ कब
सो मरता क़फ़स में असीर हूँ
ये मानो न मानो यही है सच
मैं अपने ज़माने का मीर हूँ
किसी को मैं क्या दूँ जहान में
यहाँ मैं तो ख़ुद बे-नज़ीर हूँ
छुपेगा न मंज़र-निगार तू
यहाँ मैं भी मंज़र-पज़ीर हूँ
जहाँ तुम तमाशा दिखाते हो
वहाँ का तो मैं ही मुदीर हूँ
कोई आ लड़े जो कभी तो फिर
मैं हर आन तरकश-ओ-तीर हूँ
कभी भी तुम्हें कर दूँ मैं ये फ़ाश
सुनो मैं भी हंगामा-गीर हूँ
सलाम-ओ-दुआ बाद है क़ज़ा
कि "हैदर" मैं अब वक़्त-अख़ीर हूँ
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