अब मैं किसी के हाथ में आता नहीं
इक हाथ से बस मैं निकल पाता नहीं
वो कह चुकी है तुम चले जाओ कहीं
वो शर्म हूँ मैं जो कहीं जाता नहीं
सूरत दिखा दी है उसी ने अब मुझे
चेहरा तभी कोई मुझे भाता नहीं
टूटा नहीं है दिल मेरा बस इसलिए
ग़ज़लें तरन्नुम में अभी गाता नहीं
मैं हो गया हूँ अब मुलाज़िम उसका ही
मेरा किसी से अब कोई नाता नहीं
बारिश कभी भी हो उसे है भीगना
छतरी लगा दूँ तो कहे छाता नहीं
पहला निवाला वो न खा ले जब तलक
खाना कभी मैं तब तलक खाता नहीं
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