मैं किसी का बुरा चाहता ही नहीं
चाहना छोड़िए सोचता ही नहीं
ख़्वाब-हा-ख़्वाब जो मुझ से मिलता रहा
यार मैं तो उसे जानता ही नहीं
ढूँढते ढूँढते थक चुका यार मैं
अब ख़ुशी को कहीं ढूँढता ही नहीं
हैं बहुत से भले लोग याँ पे मगर
कोई मेरा भला चाहता ही नहीं
इस सदाक़त से सब लोग महरूम हैं
बे-सबब मैं कभी बोलता ही नहीं
कोई आह-ओ-फ़ुग़ाँ से है महरूम और
कोई बज़्म-ए-तरब देखता ही नहीं
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