दिल के वीराने में ख़ुद को यूँ जगाया है
तेरी यादों को सहारा जो बनाया है
इक उसी की याद हमको यार है आती
सो उसी को ख़्वाब में हमने बसाया है
दर्द हर पल बोलता होगा नहीं शायद
तब यूँ आब-ए-तल्ख़ को हमने छुपाया है
रात तन्हाई में दिन हँसते गुज़ारा है
इस सिनेमा को सिनेमा-घर चलाया है
कब मिलेगा दर्द से आराम हमको अब
फिर ललित ने इक ग़ज़ल को गुनगुनाया है
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