अनीस मोमिन-ओ-ग़ालिब दबीर मीर के साथ
मिलूँ हूँ रोज़ मैं इंशा कभी कबीर के साथ
मिरी यूँ बनती नहीं है नए अमीर के साथ
मैं गुफ़्तुगू नहीं करता हूँ बे-ज़मीर के साथ
लपेट कर मैं ये दिल ख़त के इक तराशे में
रवाना करता हूँ जान-ए-जिगर सफ़ीर के साथ
तड़प रहे हैं समाँ देखकर ये अहल-ए-नज़र
कलेजा आ गया मेरा लिपट के तीर के साथ
ख़ुशी ज़रा सी फ़राग़त की उसने की ही नहीं
असीर बैठ गया जा के इक असीर के साथ
तुम्हारे शहर में जाहिल है कोई तख़्तनशीं
हुआ नहीं है यूँ इंसाफ़ इस फ़क़ीर के साथ
ये कह के हाथ क़लम कर दिए गए मिरे
लो रिश्ता ख़त्म हुआ हाथ की लकीर के साथ
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