ज़माने वालों से दूर रहना ज़माना ख़ुद को बदल रहा है
वफ़ा सक़ाफ़त हया निदामत का शम्स बे वक़्त ढल रहा है
हमारी आँखों के दर पे शबनम के चंद क़तरे ठहर गए हैं
हर एक क़तरा चमन के अन्दर मलाल भँवरे को खल रहा है
किसी की यादें चराग़ बनकर हमारी पलकों पे जल रही हैं
बदन किसी का गुलाब जैसा दिए की लौ से पिघल रहा है
हर एक रस्ते को यूँ सजाओ गुलाब डालो बिछाओ पलकें
सबा ने आकर ख़बर सुनाई कि चाँद घर से निकल रहा है
तुम्हारी आँखों के मयकदे पर शजर की जब से नज़र पड़ी है
कभी शजर लड़खड़ा रहा है कभी शजर ख़ुद सँभल रहा है
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