कुछ बातें ख़ुद तक ही रखना, बातों के पर होते हैं
शहर में पक्के कान लिए, सब दीवार-ओ-दर होते हैं
कुछ लोगों को हमने परखा, कुछ ने हमें हिदायत दी
यक़ीं रखो, तो ख़ुद पर रखना, झूठे रहबर होते हैं
ग़लती करके पछताना , तो इंसानों की फ़ितरत है
और इल्ज़ाम ज़माने भर के, ख़ुदा के सर पर होते हैं
इक झूठी उम्मीद से बेहतर सच्ची ना-उम्मीदी है
ख़ैर, गुलिस्ताँ आख़िर में सब, बंजर-बंजर होते हैं
उनसे कहना, ख़्वाब ज़रा सिरहाने रख कर सो जाएँ
जागी आँखों में फिर काले घेरे अक्सर होते हैं
क्यूँ कोई 'अल्फ़ाज़' किसी को नज़र करे अशआर कभी
बे-ख़तरी हो तब भी दिल के अपने ही डर होते हैं
As you were reading Shayari by Saurabh Mehta 'Alfaaz'
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