अब मोहब्बत वो कहीं और निभाता होगा
किसी जंगल में नया पेड़ लगाता होगा
किस क़दर शौक़ है आँखो में बसे रहने का
जाने किसको वो हसीं ख़्वाब दिखाता होगा
उसके कानों की वो बाली भी चमकती होगी
और कंगन से वो लोगों को लुभाता होगा
मुझको देकर के गया है ग़म-ए-हिज्राँ अपना
मेरे हिस्से की ख़ुशी किस पे लुटाता होगा
उसकी आदत है बिना बात के ग़ुस्सा करना
कौन उसके ये सभी नाज़ उठाता होगा
पूछता होगा मेरा हाल-ए-फ़ुसूँ लोगों से
मेरी हालत पे भी अफ़सोस जताता होगा
अपने साये पे उसे शर्म तो आती होगी
और शीशे में नया चेहरा सताता होगा
यूँ अचानक से न मिल जाऊँ कहीं पर उसको
राह से जाते हुए मुँह को छुपाता होगा
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