इक भी बारिश जो तिरे बाद मुसलसल हुई हो
और कभी हो भी गई हो तो मुकम्मल हुई हो
है नहीं बाब-ए-जहाँ में कोई क़िस्सा ऐसा
जिसमे आशिक़ की मोहब्बत भी मुकम्मल हुई हो
जब त'अल्लुक़ रखा कुछ दिन जो और उसने ये लगा
आ चुकी थी जो मिरी मौत मुअत्तल हुई हो
उसकी इज़हार-ए-मोहब्बत में करी हाँ यूँ थी
जैसे इक उम्र से उलझी पहेली हल हुई हो
कल ज़मीं पर जो दिखा अपना ही साया ये लगा
इक दरिंदे में भली रूह मुकफ्फल हुई हो
उसने जब जब दिल ए पत्थर पे रखे हाथ अपने
मुझ को तब तब हुआ महसूस के हल-चल हुई हो
उस नज़र में भला कैसे नए अरमान खिलें
जो तुझे पाने के अरमानों का मक़तल हुई हो
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