इश्क़ का बोझ सर पे भारी है
फिर भी साँसों का रक़्स जारी है
छील देता है भरते ज़ख़्मों को
ग़म की भी ख़ूब दस्तकारी है
तेरी आँखों के इन चराग़ों में
रौशनी आज भी हमारी है
जाने किस किस पे मेहरबाँ है वो
जाने किस किस की दावेदारी है
दोस्त-ओ-दुश्मन में फ़र्क है ग़ाइब
अब जिसे देखिए शिकारी है
इक इशारे पे नाचते हैं सब
तू ख़ुदा है कि फिर मदारी है
मौत से सब का सामना होगा
इक न इक दिन सभी की बारी है
क्या कहें ज़िंदगी के बारे में
यूँ समझ लो कि बस गुज़ारी है
है जो 'साहिल' ग़ज़ल की सूरत ये
इश्क़ का मुझ पे देनदारी है
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