दिन मेरे क़यामत के गुज़र क्यूँ नहीं जाते
अफ़सोस कि ये मुझसे मुकर क्यूँ नहीं जाते
जब चाक-ए-गिरेबाँ पे रफ़ू की है तसल्ली
आँसू मिरी पलकों पे ठहर क्यूँ नहीं जाते
आते हैं सताने मिरे घर यादों के लश्कर
आते हैं इधर क्यूँ वो उधर क्यूँ नहीं जाते
क्या दिल ही मिरा बर्क़-ए-तजल्ली का है मरकज़
जल्वे तिरे ता-हद्द-ए-नज़र क्यूँ नहीं जाते
अरमानों से मामूर है ये दिल के समंदर
अश्कों की इनायत है तो भर क्यूँ नहीं जाते
दिल मुंतशिर अब हो गया है शहर-ए-वफ़ा में
ये संग-ए-दर-ए-यार बिखर क्यूँ नहीं जाते
जब हो चुका है ख़त्म ग़म-ए-दिल का तमाशा
इन लोगों से पूछो कि वो घर क्यूँ नहीं जाते
कब तक हो 'बशर' अब यूँ हिसार-ए-ग़म-ए-दुनिया
हैं इतने गिले-शिकवे तो मर क्यूँ नहीं जाते
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