क़ातिल नहीं लगता कि मसीहा नहीं लगता
इंसाफ़ से कहिए वो भला क्या नहीं लगता
जब आँख में झाँकें तो कुछ अपना सा लगे है
जब दिल को टटोलें तो फिर अपना नहीं लगता
गुफ़्तार को देखें तो हमारी ही तरह है
किरदार को देखें तो यहाँ का नहीं लगता
ग़ैरों से उलझना तो ज़माने की हवा है
अपनों से उलझना उसे ज़ेबा नहीं लगता
कहने को तो याँ हुस्न के पैकर हैं हज़ारों
पर इनमें कोई भी तिरे जैसा नहीं लगता
इस अंजुमन-ए-कैफ़ में आशिक़ भी बहुत हैं
पर इनमें कोई आशिक़-ए-यक्ता नहीं लगता
वो शाइर-ए-गुमनाम जो गुज़रा है इधर से
इस शहर में उसका कोई अपना नहीं लगता
क्या सच में मुअय्यन है 'बशर' मौत का इक दिन
ग़ालिब से कहो हमको तो ऐसा नहीं लगता
अब वो भी दिल-आवेज़-ओ-दिल-आराम नहीं हैं
और फिर भी 'बशर' सोज़-ए-तमन्ना नहीं लगता
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