यूँ तो कहा जा सकता है कि ग़ालिब का पूरा नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान था, जो अपने तख़ल्लुस ग़ालिब से जाने जाते हैं, उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के एक महान शायर थे लेकिन क्या इस तरह से आप ग़ालिब को जान सकते हैं? नहीं।


ग़ालिब को जानना है तो ग़ालिब को पढ़िए। ग़ालिब के सिवा आपको कोई नहीं बता सकता कि ग़ालिब कौन है। शायर का त'अर्रुफ़ उसके नाम से नहीं बल्कि कलाम से होता है।


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एक अच्छे इंसान की ख़ासियत उसकी ईमानदारी होती है, ठीक ऐसे ही एक अच्छे शायर की ख़ासियत भी उसकी ईमानदारी ही होती है, अपने कलाम से ईमानदारी। कहने को तो कुछ भी कहा जा सकता है लेकिन कलाम से ईमानदारी रखते हुए ज़िंदगी के हर पहलू की हक़ीक़त बयाँ कर पाना आसान नहीं है। यह काम ग़ालिब ने महार के साथ किया है-


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जब अन्दाज़-ए-बयाँ की बात आती है तो ग़ालिब का नाम लबों पर आ ही जाता है। तंज़ लहजे में क़सीदा कहना हो या शीरीं लफ़्ज़ों में कोई ताना कसना हो, दोनों में ग़ालिब का कोई हरीफ़ नहीं।


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जहाँ ग़ालिब ने दुनिया भर के आशिक़ों को अपनी बात कहने के लिए अल्फ़ाज़ दिए हैं वहीं रिआया को हुकूमत से सवाल करने के जुमले भी दिए हैं। इश्क़ के इज़हार से लेकर इश्क़ के नाकाम होने तक या फिर ज़िंदगी के फ़लसफ़े से लेकर मौत तक हर मौज़ूअ' पर अश'आर कहकर ग़ालिब ने साबित किया है कि शायरी में कोई बंदिश नहीं होती और बंदिश होती भी हो तो ग़ालिब ने उस बंदिश को तोड़कर मौत के बाद के हालात पर भी अश'आर कहे, जिसके बारे में हम सोच भी नहीं सकते।


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एक दिन मौत आनी है इस इल्म के साथ जीते-जीते हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में जाने कितनी बार मर जाते हैं और मरते ही रहते हैं। ऐसे तंग हालात भी आते हैं कि ज़िंदगी और मौत में कोई फ़र्क़ बाक़ी नहीं रह जाता, ग़ालिब ने ऐसे ही लम्हात में अपनी सारी ज़िंदगी गुज़ार दी और इसी बीच कहा -


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मैंने सुना था कि ग़ज़ल का मा'नी गुफ़्तगू करना है लेकिन ग़ालिब को पढ़कर मुझे पता चला कि ग़ज़ल का मा'नी किसी ग़ैर से नहीं बल्कि ख़ुद से गुफ़्तगू करना है। ख़ुद से सवाल पूछना और ख़ुद ही जवाब देना ग़ालिब का अंदाज़ रहा है और शायद इसी वजह से ग़ालिब को हाज़िर-जवाबी का हुनर हासिल हुआ। ग़ालिब की हाज़िर-जवाबी के क़िस्से उनके अश'आर की तरह मक़बूलियत के साथ आज भी मशहूर हैं।


एक बार ग़ालिब के दोस्त हकीम रज़ीउद्दीन ख़ान साहब ग़ालिब के घर आए। दोनों दोस्त बरामदे में बैठ गए। हकीम साहब को आम पसंद नहीं थे और उन्हीं के सामने ग़ालिब आम का मज़े के साथ लुत्फ़ उठाने लग गए। इत्तेफ़ाक से एक गधा वहाँ से होकर गुज़र रहा था। हकीम साहब ने गधे के सामने एक आम फेंका। गधे ने आम को सूंघा और बिना खाए चला गया। हकीम साहब ने तंज़ कसते हुए कहा "देखिए मिर्ज़ा! आम ऐसी चीज़ है जिसे गधे भी नहीं खाते"। ग़ालिब ने फ़ौरन जवाब दिया - "गधे हैं, इसीलिए आम नहीं खाते"


ग़ालिब की ज़िंदगी जिन तनाज़'आत के साथ गुज़री है, इसका कोई सानी नहीं है। बावजूद इसके ग़ालिब की ज़िंदगी में लतीफ़ों की भरमार रही है और सच कहें तो ग़ालिब ने अपनी सारी ज़िंदगी किसी लतीफ़े की तरह गुज़ार दी थी। इन्हीं तनाज़'आत में किसी चक्की के पाटों की तरह मुग़लों और अंग्रेज़ों के बीच सारी ज़िंदगी पिसते रहे, अपने हक़ के लिए लड़ते रहे और अपनी हालात-बयानी करते रहे। 


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ग़ैर-मामूली तंग हालात होने के बावजूद भी इश्क़ करना और उसे निभाना आसान नहीं होता, ऐसे हालात में भी उन्होंने फ़रमाया है-


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ग़ालिब कहते हैं- चाहे कुछ भी हो जाए, रिश्ता ख़त्म नहीं होना चाहिए। कुछ नहीं होने से बेहतर है दुश्मनी ही हो। ज़िंदगी के उस मक़ाम पर जहाँ कुछ भी करना बेमतलब रह जाता है वहाँ भी ग़ालिब ने इश्क़ करते रहने का मशवरा दिया है। उनका कहना है कि इश्क़ की डोर हमारे हाथों में नहीं है बल्कि उल्टा हम इश्क़ के गिरफ़्त में हैं। इश्क़ होने या न होने पर हमारा बस नहीं चलता। इश्क़ राजा को रंक और रंक को राजा करने की ताक़त रखता है।


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इश्क़ आदमी को क्या से कर देता है इसकी मिसाल भी ग़ालिब ने ब-ख़ूबी दी है-


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इश्क़ का ज़िक्र हो और इंतिज़ार का ज़िक्र न हो, ये मुनासिब नहीं। ज़िंदगी में हमेशा किसी ना किसी का इंतिज़ार बना ही रहता है, शायद ज़िंदगी का दूसरा नाम इंतिज़ार ही है। इंतिज़ार में उम्मीद का होना बेहद ज़रूरी होता है, ग़ालिब यही उम्मीद बाँधते हुए, जीने की तमन्ना जगाते हुए फ़रमाते हैं-


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ज़िंदगी में जाने कितने रंग होते हैं, जाने कितने पहलू होते हैं जो कि वक़्त के साथ बदलते रहते हैं। ऐसा मक़ाम भी आता है कि हम ख़ुद ही ख़ुद के ख़िलाफ़ हो जाते हैं। ऐसी सूरत में ग़ालिब ने उम्मीदी के ख़िलाफ़ ना-उम्मीदी जताते हुए कहा है -


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मिर्ज़ा ग़ालिब के आख़िरी साल गुमनामी में कटे लेकिन ज़िंदगी की आख़िरी साँस तक हाज़िर-जवाबी रहे। आख़िरी वक़्त में दिल्ली में महामारी फ़ैल गयी। उन्होंने अपने शागिर्द को तंज़-भरे लिहाज़ में पत्र लिखकर बताया “भई कैसी वबा? जब सत्तर बरस के बुड्ढे-बुढ़िया को न मार सकी”


आख़िर में ग़ालिब का ही एक शेर कहते हुए मैं आपसे विदा लेना चाहूँगा-


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शुक्रिया!