आदाब दोस्तों !


आज हम इस blog में उर्दू भाषा में इस्तेमाल होने वाले नियम “इज़ाफ़त” के बारे में बात करेंगे। एक अच्छी और मुकम्मल ग़ज़ल कहने के लिए इज़ाफ़त को समझना उतना ही ज़रूरी है जितना कि बहर को समझना। लेकिन उससे पहले सतही तौर पर ये समझ लेते हैं कि इज़ाफ़त क्या होती है और उर्दू ग़ज़ल में इसकी क्या अहमियत है। उसके बाद हम इज़ाफ़त के बारे में तफ़सील से जानेंगे।


वैसे तो इज़ाफ़त का लुग़वी म’आनी है “दो चीज़ों का आपसी संबंध या लगाव” लेकिन उर्दू भाषा या उर्दू ग़ज़ल में इज़ाफ़त के द्वारा दो शब्दों को “हर्फ़-ए-इज़ाफ़त” यानी “ए” स्वर का इस्तेमाल करके जोड़ा जाता है। मिसाल के तौर पे मिर्ज़ा ग़ालिब का मशहूर-ए-ज़माना शेर-


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में “दिल-ए-नादाँ” को इज़ाफ़त का इस्तेमाल करके लिखा गया है, यानी दिल और नादान शब्दों को “हर्फ़-ए-इज़ाफ़त”, “ए” का इस्तेमाल करके जोड़ा गया है। इज़ाफ़त का इस्तेमाल करने पर शब्दों का क्रम आपस में पलट जाता है। मिसाल के तौर पे “इब्तिदा-ए-इश्क़” का मतलब है इश्क़ का आग़ाज़/इब्तिदा, इस कथन में जो शब्द बाद में आ रहा है उसे पहले लिखा गया है और उस पर ही “हर्फ़-ए-इज़ाफ़त” लगाया गया है।


आपकी जानकारी के लिए बताता चलूँ कि लेख में इज़ाफ़त के पहले शब्द को “हर्फ़-ए-ऊला” कहा जाता है और दूसरे शब्द को “हर्फ़-ए-सानी” कहते हैं। जैसे- “हासिल-ए-इश्क़” में ‘हासिल’ हर्फ़-ए-ऊला है और ‘इश्क़’ हर्फ़-ए-सानी है। इज़ाफ़त को आम तौर पर दो हिस्सों में बाँटा गया है-


इज़ाफ़त-ए-मकलूबी- 


जब इज़ाफ़त में “ए” यानी हर्फ़-ए-इज़ाफ़त को मादूम (silent) कर दिया जाए तब उसे इज़ाफ़त-ए-मकलूबी कहा जाता है।


जैसे- कुशादा-दिल सहूलत-कार


इज़ाफ़त-ए-ख़ारिजी-


जब इज़ाफ़त में दोनों शब्दों के बीच हर्फ़-ए-इज़ाफ़त यानी ‘ए’ का इस्तेमाल किया जाए तब उसे इज़ाफ़त-ए-ख़ारिजी कहा जाता है।


जैसे- अहल-ए-सुख़न, हुस्न-ए-किरदार


उर्दू भाषा में इज़ाफ़त के नियम-


चलिए तो अब हम इज़ाफ़त के एक ज़रूरी पहलू के बारे में जानते हैं। इज़ाफ़त का नियम उर्दू ज़बान में अरबी और फ़ारसी भाषा से लिया गया है इसलिए इज़ाफ़त लेना उर्दू व्याकरण में मान्य है और इज़ाफ़त महज़ उन शब्दों में लगाना चाहिए जिनका माख़ज़ अरबी या फ़ारसी हो तथा हिन्दी या संस्कृत भाषा में इज़ाफ़त का इस्तेमाल करना ग़ैर-ज़रूरी समझा जाता है और बिल्कुल भी मान्य नहीं है। मसलन “ज़िंदगी का ग़म” को “ग़म-ए-ज़िंदगी” किया जा सकता है मगर “पीड़ा-ए-जीवन” नहीं किया जा सकता।


दोस्तों! उम्मीद करता हूँ कि आपको इज़ाफ़त के बारे में जानकर मज़ा आ रहा है और आपके इल्म में भी इज़ाफ़ा हो रहा है। चलिए तो अब हम इज़ाफ़त के एक बेहद ज़रूरी मौज़ू (topic) यानी इज़ाफ़त लेते हुए नियमानुसार मात्रा किस प्रकार गिनी जाती है या शब्दों का वज़्न किस तरह निकाला जाता है, उस पर मुबाहसा करते हैं। आइए तो पहले व्‍यवस्थित ढंग से हम कुछ बातों को समझते हैं-


~ ध्यान रखें कि हर्फ़-ए-इज़ाफ़त का मूल वज़्न लघु (1) होता है और जिस व्यंजन से इज़ाफ़ती हर्फ़ जुड़ता है उसे भी लघु कर देता है लेकिन इज़ाफ़त में एक विशेष छूट के अनुसार इज़ाफ़ती हर्फ़ ‘ए’ को लघु मात्रिक(1) से बदलकर दीर्घ मात्रिक(2) भी माना जा सकता है और ग़ज़ल-गो इसे मन-मुताबिक़ इस्तेमाल कर सकता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि इज़ाफ़त में मात्रा उठाने की छूट शायर को मिलती है।


मसलन- “नक़्श-ए-क़दम” का वज़्न 2112 होता है पर इसे शायर सहूलत के मुताबिक़ 2212 भी कर सकता है।


~ हर्फ़-ए-ऊला (जिस शब्द में इज़ाफ़त के बाद “ए” जुड़ता है) का आख़िरी अक्षर अगर लघु (1) होता है तो वह इज़ाफ़ती हर्फ़ जुड़ने के बाद भी लघु (1) ही रहता है।


मिसाल के लिए “मलाल-ए-दिल” में “मलाल” हर्फ़-ए-ऊला है और इसके आख़िरी अक्षर “ल” का वज़्न मूल रूप से लघु(1) है और इज़ाफ़त जुड़ने के बाद “ले” का भी वज़्न लघु(1) ही रहेगा। इस तरह “मलाल-ए-दिल” का मूल वज़्न 1212 होगा।


~ हर्फ़-ए-ऊला अगर दो व्यंजन के जोड़ से बना दीर्घ मात्रिक शब्द है तो इज़ाफ़त के बाद ‘ए’ जुड़ने पर दोनो व्यंजन टूट कर दो अलग-अलग लघु हो जाते हैं।


जैसे “ग़म-ए-दिल” में “ग़म” एक दीर्घ(2) मात्रिक शब्द है लेकिन इज़ाफ़त लेने के बाद ये “ग़मे” हो जाता है और “मे” के साथ-साथ पहले का “ग़” भी लघु हो जाता है। इस तरह “ग़म-ए-दिल” का वज़्न 112 लिया जाता है।


~ हर्फ़-ए-ऊला का आख़िरी अक्षर अगर दीर्घ (2) मात्रिक है तो इज़ाफ़त के बाद भी वो दीर्घ (2) ही रहता है और इज़ाफ़ती हर्फ़ “ए” को अलग से लघु (1) गिना जाता है।


अगर हम “इंतिहा-ए-दर्द” का वज़्न निकालें तो “इंतिहा” शब्द का वज़्न 212 ही रहेगा और “ए” को लघु मात्रिक माना जाएगा। इस तरह “इंतिहा-ए-दर्द” का मूल वज़्न 2121 21 होगा।


~ अगर इज़ाफ़त लेते हुए हर्फ़-ए-सानी (इज़ाफ़त का दूसरा शब्द) का आख़िरी अक्षर “न” हो तो “न” हटा कर उससे पहले के अक्षर में “अँ” स्वर जोड़ दिया जाता है।


जैसे “दुनिया का काम” कथन की इज़ाफ़ती शक्ल “कार-ए-जहान” नहीं बल्कि “कार-ए-जहाँ” होगी। उसी तरह "मता-ए-जान" नहीं बल्कि "मता-ए-जाँ"।


~ इज़ाफ़त का इस्तेमाल करते हुए ये बात याद रखें कि इज़ाफ़त में लिए जाने वाले दोनों शब्द एक ही भाषा से तअल्लुक़ रखते हों। ऐसा करने से ग़ज़ल कहते हुए ग़लती की गुंजाइश कम से कमतर हो जाती है। मिसाल के तौर पे ‘जौन एलिया’ साहब का एक शेर देखिए-



अगर आप तवज्जोह दें तो इस शेर में इज़ाफ़ती लफ़्ज़ “ग़म-ए-फ़ुर्क़त” के दोनों लफ़्ज़ “ग़म और फ़ुर्क़त” अरबी भाषा के हैं।


~ क्यूँकि फ़ारसी भाषा में इज़ाफ़त का इस्तेमाल काफ़ी देखने को मिलता है इसलिए हमें फ़ारसी शायरी में अमूमन चार शब्दों के बीच भी इज़ाफ़त का इस्तेमाल देखने को मिल जाता है मगर उर्दू ग़ज़ल में इज़ाफ़त लेना अब चलन में नहीं है और कम ही शायर इसका इस्तेमाल करते हैं। अलबत्ता तीन से ज़्यादा हर्फ़-ए-इज़ाफ़त लेना उर्दू ग़ज़ल में दोष माना जाता है। 



मिर्ज़ा ग़ालिब ने इस शेर में बख़ूबी तीन शब्दों को और दो इज़ाफ़ती हर्फ़ को एक साथ जोड़कर एक बेहतरीन मिसरे को तरतीब दी है।


~ हमें इज़ाफ़त के नियम में एक विशेष छूट मिलती है जिसका ज़िक्र हम कर चुके हैं। इस छूट के चलते हम इज़ाफ़ती हर्फ़ के वज़्न को कहीं भी उठा सकते हैं।


कुछ उदाहरण लेकर इस बात को समझते हैं -


इशरत-ए-क़तरा का वज़्न 21122 होता है मगर इसे 21222 लिया जा सकता है।


आइए ! कुछ अन्य उदाहरण भी देखते हैं-


ग़म-ए-फ़ुर्क़त- 1122 / 1222 


निगाह-ए-शौक़ - 12121 / 12221 


मसनद-ए-ख़ाक - 21121 / 21221 


मौज-ए-दरिया - 2122 / 2222 


सुकून-ए-क़ल्ब - 12121 / 12221 


चश्म-ए-तर - 212 / 222 


इसी तरह ग़ज़ल-गो कहीं भी अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ इज़ाफ़ती हर्फ़ के वज़्न को उठा सकता है मगर इस छूट को ग़ज़ल में ज़्यादा इस्तेमाल करने से परहेज़ करना चाहिए।


उम्मीद करता हूँ कि आपको इस blog से काफ़ी कुछ सीखने को मिला होगा और अब आपको इज़ाफ़त का इस्तेमाल करते हुए ग़ज़ल कहने में भी आसानी होगी।


इस blog का यहीं इख़्तिताम करते हैं और मिलते हैं अगले blog में तब तक शायरी का अपना सफ़र जारी रखिए और Poetistic से जुड़े रहिए।


धन्यवाद!