यहाँ जौन साहब ने मिसरा-ए-सानी में 'मीर और ग़ालिब' को मीरो-ग़ालिब कहा है। जैसे हिन्दी भाषा में हम दो शब्दों के बीच 'तथा', 'और' आदि शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, उसी तरह उर्दू ज़बान में 'वाव-ए-अत्फ़' का इस्तेमाल किया जाता है। जैसे 'रंज और ग़म' को वाव-ए-अत्फ़ का इस्तेमाल करके 'रंज-ओ-ग़म' भी लिखा जा सकता है। दो शब्दों के बीच आने वाले 'ओ' को ही 'वाव' या 'हर्फ़-ए-अत्फ़' कहते हैं। और 'अत्फ़' अरबी ज़बान का एक लफ़्ज़ भी है जिसका मतलब होता है 'मिलाना या जोड़ना'।
ग़ौर करने पर आप ब-आसानी समझ सकते हैं कि इज़ाफ़त की तरह 'वाव-ए-अत्फ़' लगाकर बनाए गए शब्दों को हिन्दी में हाइफन की मदद से लिखा जाता है। मिसाल के तौर पे 'दर्द और ग़म' को हिंदी में 'दर्द-ओ-ग़म' लिखा जाता है मगर इसका तलफ़्फ़ुज़ 'दर्दो ग़म' के मुताबिक़ ही अदा किया जाता है और वज़्न को भी तलफ़्फ़ुज़ की अदाएगी के हिसाब से ही निकाला जाता है। याद रखिए कि 'वाव-ए-अत्फ़' लगाने पर शब्दों का क्रम नहीं बदलता है, जैसा कि इज़ाफ़त में हमें देखने को मिलता है।
वाव-ए-अत्फ़ के नियम-
दोस्तों, अगर आपने इज़ाफ़त को अच्छी तरह समझा है तो आपको 'वाव-ए-अत्फ़' को समझने में भी आसानी होगी। जिस तरह इज़ाफ़ती हर्फ़ 'ए' का मूल वज़्न लघु(1) माना जाता है, उसी तरह 'वाव-ए-अत्फ़' में 'वाव' यानी 'ओ' के मूल वज़्न को भी लघु(1) ही माना जाता है।
~ इज़ाफ़त की तरह यहाँ भी शायर को मात्रा उठाने की छूट मिलती है। यानी ज़रूरत पड़ने पर 'ओ' के वज़्न को लघु(1) से दीर्घ (2) भी मान सकते हैं।
जैसे- 'गुल-ओ-महताब' का वज़्न 'गुलो-महताब' के मुताबिक़ 11221 होता है लेकिन इसे मात्रा उठाकर 12221 भी माना जा सकता है। याद रखिए कि उर्दू ग़ज़ल में वज़्न तल्फ़्फ़ुज़ के मुताबिक़ ही निकाला जाता है। इसलिए लिखने के मुताबिक़ इसके वज़्न को गुल (2) ओ (1/ 2) महताब (221) यानी 21221 और 22221 नहीं मान सकते।
~ याद रखिए कि वाव-ए-अत्फ़ लगाते वक़्त दोनों शब्द एक ही ज़बान के होने चाहिए और उनका माख़ज एक ही होना चाहिए। एक उर्दू और एक दूसरी ज़बान के शब्द में वाव-ए-अत्फ़ नहीं लगाया जा सकता। उसी तरह एक फ़ारसी और एक दूसरी ज़बान के शब्द के बीच अत्फ़ नहीं लगाया जा सकता।
मिसाल के तौर पे 'हिसाब-ओ-किताब' को 'हिसाब-ओ-पुस्तक' नहीं कर सकते हैं। इस तरह उर्दू ज़बान ख़ालिस नहीं रहती और ग़ज़ल में इस तरह का इस्तेमाल ज़रा भी 'क़ाबिल-ए-तहरीर' नहीं है।
~ अगर दो लफ़्ज़ों में से पहले लफ़्ज़ का आख़िरी हर्फ़ मुताहर्रिक़/ दीर्घ हो, तब वाव-ए-अत्फ़ को अलग से लघु (1) मात्रिक गिना जाता है और इसे पहले लफ़्ज़ के आख़िरी हर्फ़ में नहीं जोड़ते हैं। और छूट के मुताबिक़ इस स्वतंत्र 'ओ' के वज़्न को दीर्घ (2) भी मान सकते हैं।
इस तरह 'मीना-ओ-जाम' का वज़्न 22121 होगा और छूट के मुताबिक़ वाव के वज़्न को उठा कर दीर्घ भी कर सकते हैं। इस लिहाज़ से 'मीना-ओ-जाम' का वज़्न 22221 भी लिया जा सकता है।
~ जहाँ एक तरफ़ ग़ज़लकार वाव-ए-अत्फ़ का इस्तेमाल अपने ख़याल और अपनी ग़ज़ल को बेहतर बनाने के लिए कर सकता है। वहीं दूसरी तरफ़ हद से ज़्यादा इसे इस्तेमाल करने पर पाबंदी है और उस्तादों के मुताबिक़ उर्दू ग़ज़ल में तीन से ज़्यादा बार वाव-ए-अत्फ़ का इस्तेमाल करना ऐब माना गया है।
अलबत्ता हमें कई बार क्लासिकी शायरी में एक से ज़्यादा बार वाव-ए-अत्फ़ का इस्तेमाल देखने को मिल जाता है। मिसाल के तौर पे मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर देखिए-
Umesh Maurya
बेहद ख़ूबसूरत लेख ...