आदाब दोस्तों!
उम्मीद करता हूँ कि आप सब ख़ैरियत से होंगे और हमारी शायरी सिखाने से मुत’अल्लिक़ |=| related हर पहल से काफ़ी हद तक मुतमइन भी होंगे। शायरी से रग़बत रखने वालों के लिए आज का blog 'अपनी पहली ग़ज़ल कैसे लिखें' बेहद ज़रूरी और जानकारी से परिपूर्ण होने वाला है क्यूँकि आज हम ये जानने की कोशिश करेंगे कि किस तरह शायर अपने ज़ेहन में पैदा होने वाले तमाम तख़य्युलात |=| imaginations को एक शेरी पैकर देता है और किस तरह तमाम शेर यकजा |=| assemble होकर ग़ज़ल की तामीर करते हैं। केवल अरूज़ की पाबंदियों में जकड़े हुए ख़याल को शेर नहीं कहा जा सकता यानी लफ़्ज़ों को बहर के साँचे में डालकर आप भले ही एक बेहद ख़ूबसूरत बुनद तैयार कर लें, मगर दोस्तों इस संरचना को हम शेर का नाम नहीं दे सकते।
फिर शेर क्या है?
एक मुक़म्मल ग़ज़ल क्या होती है?
बहर की पाबंदियों के अलावा एक ख़ुश-कुन |=| pleasing/dulcet और पुर-म’आनी |=| meaningful ग़ज़ल कहने के लिए किन बातों पर तवज्जो देना ज़रूरी है? आज हम इस blog में इन तमाम सवालों पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र करेंगे।
जैसा कि आप जानते है ‘ग़ज़ल’ उर्दू शायरी की एक मक़बूल |=| famous विधा है और उर्दू की ये सौग़ात हिंदुस्तान में काफ़ी लोकप्रिय भी है। आपकी जानकारी के लिए बताता चलूँ कि ग़ज़ल अरबी भाषा की एक विधा है जो ‘क़सीदे’ से निकली है। क़सीदे के शुरूआती हिस्से को ‘तशबीब’ कहते हैं। इस्लाम के आगमन के कुछ साल बाद ही अरबी क़सीदे ने ईरान का सफ़र किया और फ़ारसी शायरों ने क़सीदे से तशबीब को अलग करके ग़ज़ल नामक विधा की बुनियाद रखी। क़रीब सात सौ साल तक फ़ारसी शाइरों के हाथों में पल-बढ़कर अपने रंग-रूप को और ज़्यादा निखारकर ग़ज़ल ने हिंदुस्तानी मिट्टी पर अपने क़दम रखे, जहाँ दकनी शाइरों ने इसे हाथों-हाथ लिया। यहाँ इस्लामी तहज़ीब, भाषा और हिंदुस्तानी संस्कृतियों ने आपस में मिलकर एक नई शाइरी की सिंफ़ |=| genre को वुजूद दिया, जिसे आज हम ख़ालिस हिंदुस्तानी ग़ज़ल कहते हैं।
क्यूँकि आप ग़ज़ल के इतिहास को कुछ हद तक जान चुके हैं, अब हम इस blog के मुख्य पहलू पर बात कर सकते हैं। अगर आप ने अब तक कोई ग़ज़ल तख़्लीक़ नहीं की है तो इस blog में बताई जाने वाली निम्नलिखित कुछ बातों को ज़ेहन-नशीं |=| understand करके आप अपने अंदर मौजूद ‘काव्यात्मक तत्व |=| poetic element’ को बाहर ला सकते हैं और अपनी पहली ग़ज़ल को और भी बेहतर ढंग से कह सकते हैं।
1. ग़ज़ल और शेर की समझ-
ग़ज़ल क्या है, इससे पहले ये जानना ज़रूरी है कि शेर क्या है क्यूँकि ग़ज़ल अच्छे शेरों का ही संग्रह होती है। अगर एक तय बहर को आधार बनाकर दो मिसरों को तरतीब देना मुकम्मल शेर नहीं है तो फिर मुकम्मल शेर क्या है? दरअस्ल शेर वो है जो हम पर तारी होता है, अपने तमाम लवाज़िमात |=| requisites/essentials के साथ यानी वो बात जो हमारे ज़ेहन ने सोची और दिल ने महसूस की और इस अनोखी बात को रदीफ़, क़ाफ़िया और बहर की पाबंदियों के साथ-साथ क़ैफ़ियत, फ़िक्र, नएपन, एहसास और कर्णप्रिय लफ़्ज़ों के धागे में पिरोना ही एक मुकम्मल यानी संपूर्ण शेर की अलामत |=| trademark है और इन्ही ज़रूरियात से परिपूर्ण एक समान ज़मीन (बहर+रदीफ़+क़ाफ़िया) में कहे गए शेरों का संग्रह ही ग़ज़ल है और ग़ज़ल का हर शेर दूसरे शेर से विचार के आधार पर पूरी तरह से जुदा होता है यानी हम ये कह सकते हैं कि ग़ज़ल का हर शेर नज़्म की हैसियत रखता है।
2. ग़ज़ल की ज़मीन-
ग़ज़ल की ज़मीन तीन मूल तत्वों से मिलकर बनती है- रदीफ़, क़ाफ़िया और बहर। ग़ज़ल की बहर को हम अगले सेक्शन में विस्तार से समझेंगे। उससे पहले हम ग़ज़ल में क़ाफ़िया और रदीफ़ क्या होता है और इन्हें किस तरह निभाया जाता है, ये समझने की कोशिश करते हैं। ज़मीन ग़ज़ल की वो पहली सीढ़ी है जिसपे क़दम रखकर शाइर ग़ज़ल की बारीकियों को समझने का सफ़र शुरू करता है और ज़्यादा-तर शाइर इससे वाक़िफ़ भी होते हैं मगर फिर भी आपकी जानकारी के लिए दोबारा इस मौज़ू को अपने ज़ेहन में ताज़ा कर लेते हैं।
नीचे दिए गए चित्र की सहायता से आप ग़ज़ल की ज़मीन अथवा अन्य ग़ज़ल से जुड़ी उर्दू शब्दावली |=| terminology को सुहुलत और आसानी से समझ सकते हैं। जिगर साहब की एक मशहूर ग़ज़ल की सहायता से आप रदीफ़, क़ाफ़िया, तख़ल्लुस, मतला, मक़्ता और हुस्न-ए-मतला जैसी उर्दू शब्दावली से आसानी से परिचित हो जाएँगे।
अगर आप इस मौज़ू पर अधिक जानने की इच्छा रखते हैं तो आप team Poetistic की जानिब से शाया |=| publish किए गए इस blog को पढ़ सकते हैं। मैं आपको आश्वासन दिलाता हूँ कि इस blog को पढ़कर आपके तमाम संदेह पूरी तरह से दूर हो जाएँगे।
3. बहर और बनावट-
बहर का मौज़ू एक तवील मौज़ू है जिसपर हम आपके लिए देर-सवेर blog लाते रहते हैं। उर्दू शाइरी में 32 प्रचलित बहरें हैं जिनको आधार बनाकर आप ग़ज़ल कह सकते हैं। क्यूँकि हम सारी बहरों पर यहाँ चर्चा नहीं कर सकते, इसलिए मिसाल के तौर पर एक शेर की सहायता से बहर को समझने की कोशिश करते हैं। महबूब ख़िज़ाँ साहब का एक शेर मुलाहज़ा कीजिए-
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इस शेर की तक़ती'अ करें तो कुछ इस तरह का स्वरूप सामने आता है
बात ये है/ कि आदमी/ शाइर (2122/ 1212/ 22)
या तो होता/ है या नहीं/ होता (2122/ 1212/ 22)
सरसरी तौर पे आप समझ चुके होंगे कि उर्दू शाइरी की ये मशहूर बहर (2122 1212 22) ही इस शेर की संरचना का वो बुनियादी हिस्सा है जो इसे लयात्मक बनाता है। उर्दू शाइरी में बहरों से संबंधित छंद-विधान की इसी क्रमबद्ध व्यवस्था को ‘इल्म-ए-अरूज़’ कहा जाता है। यदि आप अपनी पहली ग़ज़ल कहना चाहते हैं तो बेहद ज़रूरी है कि आपको अरूज़ का ज्ञान हो। इस कठिन कला को सिखाने का ज़िम्मा team Poetistic के कुछ नुमाइंदों ने बख़ूबी अपने सर पर उठाया हुआ है, जो अपने निरंतर प्रयासों से इस मुश्किल काम को ब-ख़ूबी पाया-ए-तकमील |=| (completion) तक पहुँचा रहे हैं। अगर आप अपनी पहली ग़ज़ल कहने के लिए बहर से संबंधित बारीकियों को समझना चाहते हैं तो team Poetistic की जानिब से 32 बहरों पर चलाए जाने वाली blog series से जुड़ सकते हैं।
4. संगीत और सुर-
अगर आप अपनी पहली ग़ज़ल को सार्थक बनाने के साथ-साथ कर्णप्रिय |=| melodious भी बनाना चाहते हैं तो शब्दों का चुनाव बहुत सोच-समझकर करें। ग़ज़ल में बाहरी संरचना के अलावा एक आन्तरिक सुर और मधुरता भी मौजूद होती है, जो शब्दों की क्रमबद्धता |=| arrangement पर निर्भर करती है। शब्दों को मिसरे में इस तरह से पिरोएँ कि वे आपस में घुल-मिलकर एक मोहक और लुभावनी आवाज़ को पैदा करें ताकि शेर श्रोता को और भी ज़्यादा कर्णप्रिय मालूम हो। कभी कभी शेर बहर में तो होता है मगर शब्दों का ताल-मेल धुन्यात्मक दृष्टि |=| phonetically से मधुर नहीं लगता है यानी शेर में इस्तेमाल होने वाले शब्दों के मिलाप से पैदा होने वाली ध्वनि कान को खुरदरी महसूस होती है। इसलिए ग़ज़ल की ख़ूबसूरती को और अधिक निखारने के लिए इस पहलू पर भी गौर करें कि ग़ज़ल लयात्मकता से भरपूर हो।
मिसाल के तौर पे ग़ालिब का एक शेर आपकी समा’अतों की नज़्र है जिसमें संगीत और सुर की साधना का भरपूर ख़याल रखा गया है-
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5. इज़ाफ़त और वाव-ए-अत्फ़-
इज़ाफ़त और वाव-ए-अत्फ़ दोनों का ही इस्तेमाल उर्दू भाषा में संयुक्त शब्द बनाने के लिए किया जाता है। हालाँकि नए दौर के शायर इस तरकीब का इस्तेमाल कम ही करते है, मगर क्लासिकी उर्दू शाइरी में इज़ाफ़त और अत्फ़ का इस्तेमाल काफ़ी देखने को मिल जाएगा। एक अच्छे ग़ज़लकार के लिए इन बारीकियों को समझना ज़रूरी भी है। आइए, एक शेर का उदाहरण लेकर समझते हैं कि किस तरह इन नियमों के इस्तेमाल से शब्दों को आपस में जोड़कर एक नया शब्द बनाया जाता है-
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इस शेर में ‘ख़िदमत-ए-उस्ताद’ शब्द में आने वाले स्वर ‘ए’ को हर्फ़-ए-इज़ाफ़त और ‘जान-ओ-दिल’ शब्द में आने वाले स्वर ‘ओ’ को ‘वाव’ या ‘हर्फ़-ए-अत्फ़’ कहते हैं। इन दोनों नियमों का इस्तेमाल करके एक नया संयुक्त शब्द बनाया जा सकता है।
ध्यान रखें कि हर्फ़-ए-इज़ाफ़त ‘ए’ का मूल वज़्न लघु (1) होता है और जिस व्यंजन से ये इज़ाफ़ती हर्फ़ जुड़ता है उसे भी लघु कर देता है लेकिन इज़ाफ़त में एक विशेष छूट के अनुसार इज़ाफ़ती हर्फ़ ‘ए’ को लघु मात्रिक (1) से बदलकर दीर्घ मात्रिक (2) भी माना जा सकता है और ग़ज़ल-गो इसे मन-मुताबिक़ इस्तेमाल कर सकता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि इज़ाफ़त में मात्रा उठाने की छूट शायर को मिलती है।
दोस्तों, अगर आपने इज़ाफ़त को अच्छी तरह समझा है तो आपको 'वाव-ए-अत्फ़' को समझने में भी आसानी होगी। जिस तरह इज़ाफ़ती हर्फ़ 'ए' का मूल वज़्न लघु (1) माना जाता है, उसी तरह 'वाव-ए-अत्फ़' में 'वाव' यानी 'ओ' के मूल वज़्न को भी लघु (1) ही माना जाता है।
इज़ाफ़त की तरह यहाँ भी शायर को मात्रा उठाने की छूट मिलती है। यानी ज़रूरत पड़ने पर 'ओ' के वज़्न को लघु(1) से दीर्घ (2) भी मान सकते हैं।
अगर आप इस topic को और अच्छी तरह से समझना चाहते हैं तो Poetistic के जानिब से शाया किए गए इस blog को पढ़ सकते हैं-
6. सुधार और रियाज़-
ग़ज़ल की विधा बारीकियों से परिपूर्ण है। आप भले ही अपने लेखन से मुतमइन हों मगर फिर भी ग़ज़ल में सुधार की गुंजाइश हमेशा रहती है। इसलिए ही शायद अपने वक़्त के मक़बूल शाइर भी अपने उस्ताद की इस्लाह और सुझाव को सर्वोपरि मानकर अपनी ग़ज़ल में वाजिब सुधार ज़रूर करते थे। अगरचे उस्ताद का काम सलाह देना होता है मगर वो अपनी इच्छानुसार शेर में ऐसी कोई भी तब्दीली नहीं कर सकता जिससे शेर के मूल अर्थ या भाव में कोई भी बदलाव आए। काफ़ी क्लासिकी ग़ज़लकार आपको ऐसे भी मिलेंगे जो आमद या फ़ितरी शाइरी में यक़ीन रखते हैं यानी उनकी कुछ ग़ज़लें ऐसी भी हैं जिनमें मतला नहीं है मगर उन्होंने ज़बरदस्ती का कुछ नहीं लिखा, अब भले कोई इन ग़ज़लों को स्वीकार करे या नहीं। लेकिन उस्ताद और शागिर्द की रिवायत उर्दू शाइरी में हमेशा से ही रही है।
आइए, शेर में इस्लाह की इस परंपरा को उदाहरण के साथ समझते हैं। अल्ताफ़ हुसैन ‘हाली’ के एक शेर की मिर्ज़ा ग़ालिब ने कुछ यूँ इस्लाह की है।
शेर- उम्र शायद न करे आज वफ़ा
सामना है शब-ए-तन्हाई का
इस्लाह- उम्र शायद न करे आज वफ़ा
काटना है शब-ए-तन्हाई का
इस शेर में सुधार की वजह यूँ है कि ‘शब-ए-तन्हाई’ के साथ ‘सामना’ शब्द की जगह ‘काटना’ शब्द के इस्तेमाल से शेर भाषा के लिहाज़ से बेहतर हो गया। यहाँ मिर्ज़ा ग़ालिब की इस्लाह ने ‘रात की तन्हाई काटी जाती है’ इस विचार को और भी ज़्यादा उजागर कर दिया।
उम्मीद करता हूँ कि आपको अब तक दी जाने वाली जानकारी लाभदायक लगी होगी और आप इस्लाह के इस पहलू को ग़ज़ल कहते वक़्त ध्यान में रखेंगे। चलिए कुछ और ज़रूरी बातों पर भी ग़ौर-ओ-फ़िक्र करते हैं।
7. इज़हारियत और तस्वीरकशी-
एक अच्छी ग़ज़ल लफ़्ज़ों को बहर के साँचे में ढालने के अलावा और भी बहुत कुछ है। ख़ासतौर से आज के ग़ज़लकार के लिए ग़ज़ल में नयापन पैदा करना किसी चुनौती से कम नहीं है। शेर में नयापन लाने से मुराद शब्दों की शक्ल बदलने, किसी दूसरी ज़बान जैसे-अंग्रेज़ी के शब्दों का इस्तेमाल या भाषा अथवा व्याकरण में तोड़-फोड़ करने से ज़रा भी नहीं है बल्कि शाइर को नए अनुभवों और अर्थों की बुनियाद पर नया शेर कहने की जिद्द-ओ-जहद करनी चाहिए। अच्छे शेर की पहचान उसमें मौजूद एक सुंदर और स्पष्ट अभिव्यक्ति |=| expression से होती है।
नए शाइर को ऐसे शेर कहने से परहेज़ करना चाहिए जो कोई और भी कह सकता हो। यानी रोज़मर्रा की बातों को दोहराकर निर्जीव शेर कहना बहुत आसान है, जैसा कि आजकल हमें सोशल मीडिया पर देखने को मिलता है। वज़नदार और भारी उर्दू शब्दों का इस्तेमाल करना भी शेर को कम या ज़्यादा अच्छा करने में कोई किरदार नहीं निभाता बल्कि आज के post-modern ज़माने में शेर में सरलता और अर्थ-पूर्ण विचार के साथ साथ गहराई होनी भी बेहद ज़रूरी है। शाइरी एक कला है और संसार, अस्तित्व, ज़िंदगी, इश्क़, सृष्टि, प्रबोधन, समय, ज्ञान आदि गंभीर मौज़ूआत को बुनियाद बनाकर ही एक सरल और सार्थक शेर कहा जा सकता है। ग़ज़ल कहते वक़्त हर शेर की इज़हारियत |=| expression को ज़ेहन में रखना ग़ज़ल कहने में आसानी पैदा करता है।
शारिक़ कैफ़ी साहब का ये शेर देखिए कि किस तरह इस post modern शाइर ने गहरी बात को सरलता और ख़ूबसूरती से समझाया है-
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8. वज़ाहत (clarity) और इख़्तिसार-
ग़ज़ल का दोष रहित और परिपूर्ण होना ग़ज़ल में मौजूद इख़्तिसार |=| brevity यानी ग़ज़ल की संक्षिप्तता पर भी निर्भर करता है। ग़ज़ल कहते वक़्त ऐसे शब्दों का चुनाव करें जो आपके जज़्बात को बिना बदले श्रोता तक पहुँचा दें। शेर में सादगी के साथ साथ गहराई भी होनी चाहिए। लेकिन शब्दों के इस सटीक इस्तेमाल के लिए आपके अंदर भाषा की समझ होना बहुत ज़रूरी है। क्यूँकि बहर की विधा के तहत हम सीमित शब्दों का इस्तेमाल ही कर सकते हैं इसलिए शेर में कोई भी ऐसा शब्द शामिल न करें जिसकी अर्थ-निर्माण में कोई भूमिका न हो। शब्द पुर-म’आनी होने के साथ साथ ऐसा होना चाहिए जो अर्थ निर्माण में मदद करे और किसी भी लिहाज़ से उसका प्रयोग ग़ैर-ज़रूरी न लगे।
इसलिए वज़ाहत और इख़्तियार ऐसे दो ज़रूरी पहलू हैं जो शेर का मेयार तय करते हैं। आप जानते हैं कि किस तरह शेर में एक साधारण और किसी भारी उर्दू शब्द के बग़ैर कहे जाने वाली बात भी श्रोता के दिल में छाप छोड़ देती है। वज़ाहत और इख्तिसार का ये ख़ूबसूरत संगम हमें मदन मोहन दानिश साहब के इस शेर में देखने को मिलता है-
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आख़िर हम इस blog के इख़्तिताम तक पहुँच चुके हैं। उम्मीद करता हूँ कि ये blog उर्दू ग़ज़ल कहने की राह पर पहला क़दम रखने वाले नौजवानों के लिए मार्गदर्शक का काम करेगा। बा-मानी |=| अर्थपूर्ण और तहदार शेर कहने के लिए इन तमाम बातों को ज़ेहन में रखें। पाएदार ग़ज़ल कहना अपने आप में एक ख़ूबसूरत एहसास है और ये blog आपकी क़लम से तहरीर होने वाली पहली ग़ज़ल को और मुनफ़रिद और बाला-तर बनाने का काम करेगा।
हम आगे भी शाइरी के हवाले से इस तरह के blog लाते रहेंगे। तब तक ग़ज़ल कहने का अपना सफ़र जारी रखिए और team Poetistic के साथ जुड़े रहिए।
धन्यवाद!
Deependra Singh "Deep"
Nice 👏👏