इक शाइर हुआ आज़ादी के दौर में। हुआ और ऐसा हुआ कि हर किसी के दिल ओ ज़ेह्न में अपनी पहचान कायम की और गया तो रूलाता गया। असरार उल हक़ मजाज़ !



साहिबों! मैं मजाज़ के बारे में तुमसे क्या कहूँ! बस ये समझ लो कि मजाज़ पढ़ने पर जो दिल ओ दिमाग़ पर जो जुनूँ तारी होता है वो और मोहब्बत के शाइरों से सिवा होता है। मजाज़ के यहाँ मोहब्बत एक खास मकसद में मसरूफ़ नज़र आती है। न सिर्फ एक रूमानी अफ़्लातूनी मोहब्बत बल्कि इंक़लाबी मोहब्बत! और ये इंक़लाब में मोहब्बत का मिलना और मोहब्बत में इंक़लाबी रंग जिस शदीद लहजे में मजाज़ के यहाँ दिखता है, वो मानो ऐसा है कि गुलाब के फूल से जंग लड़ने की हिमाकत है और मजाज़ इस जुरअत पर खरे उतरते नज़र आते हैं। 


मजाज़ की शाइरी से इश्क़ और इंक़लाब की जोड़ी को जुदा करना उतना ही नामुमकीन है जितना कि आज से मजाज़ को। मजाज़ की शाइरी की इसी binary के सबब बीस साल के नौजवान, मेहनतकश तबका और तो और बुद्धिजीवी तबका सब मजाज़ के काइल हैं। 


इतनी बड़ी spectrum of audience वाले मजाज़ के कुछ अशआर यूँ हैं …



बकौल फिराक़, मजाज़ की शाइरी तरक्की पसंद शाइरी का manifesto है। 


यहाँ romanticism में भी आपको एक progressive ख़याल नज़र आएगा। गौर से देखिए! इस दुनिया की औरत कहकर मजाज़ ने शाइरी की रूमानी दुनिया से अस्सी दुनिया तक का सफर तय कर लिया। ये ऐतराफ़! ये maturity! इस दुनिया की औरत यानी इस दुनिया के हिसाब से चलने वाली, हुकूमत के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाली, अपनी ज़रूरतों के लिए किसी पर निर्भर नहीं। जिस मर्द ने औरत के इस पहलू पर गौर ओ फिक्र किया और लिक्खा, वो मजाज़ थे।



बताइए जनाब! एक शेर से उभर ही रहे शे कि और तरक्की पसंद अशआर सामने हैं। समाज का एक तबका जिसे हम Elite intellectuals का तबका कहते हैं, ये हमेशा से मानता आया है कि इंक़लाब और जुनूँ ये सब पढ़े लिक्खे समझदार वर्ग को शोभा नहीं देती, समझदारी और जुनूँ साथ नहीं चल सकते। पहले शेर में मजाज़ कहते हैं की हाँ माना कि इल्म की ज़रूरत हर ज़माने में होती है, ख़िरद के बिना क्या ही हासिल हो, मगर यही तो इंक़लाब का दौर भी है! कौन सा दौर? शायद in general जवानी के बारे में कहा जा रहा है! या फिर ये उस दौर की बात है जब हिन्दोस्तान में सरमायादार निज़ाम के खिलाफ बगावत अपने चरम पर थी। मजाज़ की शाइरी में बहुत जगह आपको सरमायादार निज़ाम की मुख़ालिफत मिलेगी। उनकी दो नज़्में "सरमायादारी" और "इंक़लाब" इसके हवाले से उनकी शाहकार नज़्में हैं ! 


अगले शेर में एक classical thought हमारे आगे आता है। न ये दुनिया अच्छी है न कोई और, वो लोग जो दिलवाले हैं, दिल रखते हैं, औरों के ग़म पर रोते हैं, उनका कोई ठीकाना नज़र नहीं आता। 


अगला शेर दरअस्ल कह रहा है, charity begins at home! वो आदमी जो ज़माने से आगे नहीं बढ़ सकता, उसकी सोच और समझ से outgrow नहीं करता, वो ज़मामे को आदे बढ़ाने की सोच भी कैसे सकता है? 


आखिरी शेर में एक positivism दिखता है कि शाइर समंदर किनारे रो भी रहा है और कह रहा है कि आने वाले वक्त में तूफान आएगा, मुस्कुराना भी है। 



मजाज़ और हर मोहब्बत पसंद शख्स का आज यही दुःख है कि राह दिखाने वाले और ससलाह देने वाले रहबर तो बहुत मिलते हैं, तोई दिल की बात सुनने वाला दिलवाला नहीं मिलता। हम उस दुनिया में रहते हैं जहाँ दोस्ती में हिचकिचाहट दुनिया में गरीबी की तरह बढ़ती ही जा रही है, हमारे मूल्य छीछले हो रहे हैं, चकाचौंध मानो रिश्तों की गरम चाय में पानी मिला रही है। तब ये शेर हो सकता है। मजाज़ की relevancy पर कोई शक़? हो भी तो आगे दूर हो जाएगा।



इन अशआर में एक रूमानी subtlety है, जो इनके मज़मून के सबब है। बात ही इस तरीके से कही गयी है कि बात में एक intrinsic romance पैदा होता है।



क्या हम सब एक पल रूककर शेर के आहंग की पूरी ईमानदारी से तारीफ़ कर सकते हैं? क्या ही शेर हुआ है, नज़्जारे का शौक़ क्यूँकर के नज़रों में कोई पसंदीदा सूरत नहीं है, तसव्वुर में ज़ौक़ कहाँ से पसंद पैदा हो कि सूरत जानाँ की ही भूली जा चुकी है। जौन का वो शेर भी तो इसी मौज़ूँ पर है



जौन के शेर की तरह ही मजाज़ के शेर में भी उनका writing style शदीद शक्ल में पाया जाता है।



बशर्ते के मजाज़ मार्क्सवाद से वास्ता रखते नज़र आते हैं मगर एक मोहब्बत करने वाले के पास एक ऐसी ईमानदार जुरअत मौजूद होती है जो उसे सियासत की गंदी सड़कों पर बिना गिरे चलने का हुनर देती है।


मजाज़ के यहाँ हुस्न और इश्क़ के हवाले से एक binary देखने को मिलती है। मसलन ये शेर देखें …







और न जाने कितने ही शेर इस binary पर मिलेंगे। इस binary में अक्सर मजाज़ इश्क़ की लाचारी और हुस्न के ठाठ को बताते नज़र आते हैं। ज़ाहिर है कि इश्क़ की अज़्मत तो शाइर ही जानेगा ना!



साहिर की नज़्म की लाईन याद आती है ," यहाँ प्यार होता है व्योपार बनकर, ये दुनियाँ अगर मिल भी जाए तो क्या है !" आपको पहली लाईन में एक दावा नज़र आता है कि शाइर की वफ़ा का जवाब महज़ लुत्फ़ नहीं है। तो अगले ही मिसरे में आपको शबाब का ज़िक्र मिलता है और शाइर इस मामले में शबाब और वफ़ा के सरमायादारी व्योपार के खिलाफ नज़र आता है। 



दूसरी बारी का इश्क़ लगता है। जब आशिक पहली बार इश्क़ में नाकाम होकर इश्क़ से ऊबरना चाहता है। पर इश्क़ तो आखिर इश्क़ है। चेहरे बदल जाते हैं, किरदार बदल जाते हैं, इश्क़ का रंग नहीं छूटता। 



आखिर महबूब का ठीकाना तो दिल ही होता है। अब चाहे आवाज़ कहीं से आए। कतईं प्यारा शेर है। जौन ने शायद इसी को पलटकर कहा था , 



आइए उस मौज़ूँ पर अब बात करें जिसपर मुझे लिखने का बेसब्री से इंतज़ार था। मजाज़ और इंक़लाब पर उनके अशआर...



यहाँ आपको मार्क्सवाद अपने चरम पर दिखता है। मजाज़ उस ज़माने के शाइर है जब न सिर्फ़ सियासत गरीब और मजदूर तबके के इर्द गिर्द घूमती थी बल्कि शाइर और विचारक मेहनतकशों के हिमायती थे। आज अफसोस एक right wing hegemony ने शाइरी में भी जगह बना ली है। आज का शाइर लिबरल है। वो गरीबों के हक़ में लिखने को सियासत समझता है और खुदके apolitical होने पर इतराता है। ज़ाहिर है मजाज़ होते तो इन शाइरों पर थूक देते। ये कैसा अंधा art है तुम्हारा जिसे भूख और बेबसी नज़र नहीं आती।



मजदूरों का तराना नाम की ये नज़्म पूरी पढ़ने लायक है। आज जब सर्वहारा का एक बड़ा वर्ग यानी किसान वर्ग लगभग आठ महीने से प्रदर्शन कर रहा है और इस corporate पसंद बुर्जुआ सरकार को कोई फिक्र नहीं, तब वो नज़्म आपको मजदूर के लहजे में एक शोषित तबके की बात बताएगी।



कैसी दुनियाँ है जनाब? गरीब लगातार लूटा जा रहा है और अमीर इमारत खड़ी करने से बाज़ नहीं आ रहे। वो इमारत जो गरीबों की हड्डियों से तामीर की गई है। यहाँ कत्ल़ होते हैं पर कातिल मिलता नहीं। ये कैसे कत्ल़ हैं? ये वो खुदकुशियाँ हैं जो किसानों ने की हैं। कातिल कौन है? बताने की ज़रूरत है मगर सब न जानने का ढ़ोंग कर रहे हैं। 



इस नज़्म का नाम है "बोल अरी ओ धरती बोल"।


आपने इस नज़्म में इंक़लाब को सांस लेते पाया होगा। अब इसे जीता जागता रक्स करता देखिए इस नज़्म के टुकड़े में जिसका ऊनवान ही है, "इंक़लाब"


फेंक दे ऐ दोस्त अब भी फेंक दे अपना रुबाब
उठने ही वाला है कोई दम में शोर-ए-इंक़लाब
आ रहे हैं जंग के बादल वो मंडलाते हुए
आग दामन में छुपाए ख़ून बरसाते हुए
कोह-ओ-सहरा में ज़मीं से ख़ून उबलेगा अभी
रंग के बदले गुलों से ख़ून टपकेगा अभी
बढ़ रहे हैं देख वो मज़दूर दर्राते हुए
इक जुनूँ-अंगेज़ लय में जाने क्या गाते हुए
सर-कशी की तुंद आँधी दम-ब-दम चढ़ती हुई
हर तरफ़ यलग़ार करती हर तरफ़ बढ़ती हुई
भूक के मारे हुए इंसाँ की फ़रियादों के साथ
फ़ाक़ा-मस्तों के जिलौ में ख़ाना-बर्बादों के साथ
ख़त्म हो जाएगा ये सरमाया-दारी का निज़ाम
रंग लाने को है मज़दूरों का जोश-ए-इंतिक़ाम
गिर पड़ेंगे ख़ौफ़ से ऐवान-ए-इशरत के सुतूँ
ख़ून बन जाएगी शीशों में शराब-ए-लाला-गूँ
ख़ून की बू ले के जंगल से हवाएँ आएँगी
ख़ूँ ही ख़ूँ होगा निगाहें जिस तरफ़ भी जाएँगी
झोंपड़ों में ख़ूँ, महल में ख़ूँ, शबिस्तानों में ख़ूँ
दश्त में ख़ूँ, वादियों में ख़ूँ, बयाबानों में ख़ूँ
पुर-सुकूँ सहरा में ख़ूँ, बेताब दरियाओं में ख़ूँ
दैर में ख़ूँ, मस्जिद में ख़ूँ, कलीसाओं में ख़ूँ
ख़ून के दरिया नज़र आएँगे हर मैदान में
डूब जाएँगी चटानें ख़ून के तूफ़ान में
ख़ून की रंगीनियों में डूब जाएगी बहार
रेग-ए-सहरा पर नज़र आएँगे लाखों लाला-ज़ार
ख़ून से रंगीं फ़ज़ा-ए-बोस्ताँ हो जाएगी
नर्गिस-ए-मख़मूर चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ हो जाएगी
कोहसारों की तरफ़ से ''सुर्ख़-आंधी'' आएगी
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Asrar Ul Haq Majaz
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महसूस हो रहा है? खून थिरकता हुआ? गुरबत बगावत करती हुई? मुझे ये मुस्तकबिल की तस्वीर लग रही है।


मजाज़ के यहाँ आपको सरमायादारी निज़ाम की मुखालिफ़त बाकी शाइरों से अलहदा मिलती है। साफ सीधी चोट है ना, इधर उधर में बात को घूमा फिरा के नहीं कहा गया। मसलन अपनी नज़्म "सरमायादारी" में सरमायादारी के बारे में ये अशआर देखिए...



या आवारा नज़्म की ये लाईनें देखिए...



आप बगावत के साथ जो obsession देख रहे हैं, वो तो आपको मजाज़ के समय के लगभग हर शाइर के यहाँ दिखेगी लेकिन बगावत के साथ ये romanticism बस मजाज़ के यहाँ। भगत सिंह याद आते हैं कहते हुए,



आज़ादी मेरी दुल्हन है!



मजाज़ की तरह हर इंसानपसंद शख्स एक जन्नत तसव्वुर करता है। पर ये जन्नत utopian कहकर खारिज कर दी जाती है। मजाज़ हर किसी की तरफ़ से जवाब देते हुए अपनी नज़्म "फ़िक्र" में लिखते हैं :-



मैंने "आहंग"(मजाज़ का मजमूए कलाम)  को तीन मर्तबा पढ़ा है। एक अजीब attraction है इस किताब में। शायद मेरे और मजाज़ के सामाजिक रूप से विचार मिलते हैं इसलिए भी मगर मैं इसमें मजाज़ के यहाँ की एक खूबी को ज़िम्मेदार मानता हूँ। वो है इंक़लाब और रूमानियत की homogeneity। यही है जो  मजाज़ को आज के दौर में भी relevant बनाए हुए है। कभी एक sitting में मजाज़ का पूरा कलाम पढ़िए और फिर देखिए, क्या असर डालते हैं आप पर "असरार-उल-हक़-मजाज़"