जो ख़ुद के ग़मों को ही सीते रहे
तो भर भर के आँसू को पीते रहे
उधर फ़ासलों की इज़ाज़त न थी
सो हम फिर क़रीबी में जीते रहे
न साक़ी ने हमको ही रोका कभी
तो प्यालों पे प्याले यूँ पीते रहे
उधर ख़ुद को हिरनी बताते है वो
इधर हम शिकारी से चीते रहे
मना कर के हमको ये दुनिया थकी
जो करना था हमको तो कीते रहे
वो दुनिया की माना चहेती बहुत
तो हम भी ग़मों के चहीते रहे
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