वो ठान ले अगर तो ये सब कर भी सकता है
वो बेवजह ही ख़ामियों में ख़ुद की खोता है
वो जागता है पहरों कोई उस में सोता है
अक्सर ये उस की उम्र में ऐसा ही होता है
खोता रहा वो चश्म जो राहों को ताकते
पूछे ये उस से कौन जो राहों में रहता है
पागल ही है ये इस की दवा कौन क्या करे
ऐसा ही दर्द हर किसी मरहम को होता है
पुर कैफ़ियत के राज़ हैं जो बंद गोशे में
दुनिया में ठीक ठाक वो तन्हा में रोता है
कर दफ़्न फिर कफ़न को कोई कैसे फेंक दे
मर भी गया सफ़ीर तो मुश्कों में रहता है
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