जंग जारी है दरमियान में क्या
शर्म है चादर-ए-अमान में क्या
बे-तकल्लुफ़ मुझे बुरा भी कहो
बस क़सीदे पढ़ोगे शान में क्या
एक ही शख़्स वो भी ना-मा'क़ूल
कुछ नहीं मेरी दास्तान में क्या
छोड़ता शेर अब कमान से मैं
तीर रखने थे इस कमान में क्या
मुझ को दिखता नहीं है दूर का अब
वो भी बैठी है हाज़िरान में क्या
खींचती रहती हो मिरी बाँहें
लुत्फ़ है कोई खींच-तान में क्या
सुन के बतलाना दास्तान-ए-जून
जौन दिखते हैं दास्तान में क्या
As you were reading Shayari by Joon Sahab 'Joon'
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