तेरे दिल और धड़कनों के दरमियाँ से मैं
जाऊॅंगा फिर कहाॅं पे जो निकला यहाँ से मैं
अव्वल से इल्म में थी तिरे दास्ताँ मिरी
ला-'इल्म आज-तक हूॅं तिरी दास्ताँ से मैं
जब अहद-ए-तर्क-ए-इश्क़ किया फिर रुका नहीं
चुप-चाप आ गया था निकल उस मकाँ से मैं
थी दिल्लगी या दिल की लगी कुछ पता नहीं
यूॅं ही गुज़र रहा था हर इक इम्तिहाँ से मैं
जब गुल मिरे क़रीब था तब अहमियत न दी
अब पूछता हूॅं उस का पता बाग़बाँ से मैं
इक कारवाँ में उस से मिरा राब्ता हुआ
फिर लौट कर न गुज़रा कभी कारवाँ से मैं
होगा रक़ीब भी न था वहम-ओ-गुमान में
मशग़ूल गुफ़्त-ओ-गू में रहा जान-ए-जाँ से मैं
वैसे तो जिस्म-ओ-जाँ से निकलती है कोई रूह
निकलूॅंगा एक दिन यूॅं तिरे जिस्म-ओ-जाँ से मैं
ऐसे मक़ाम पर ये मुहब्बत तमाम हो
बोले जो तू ज़मीं से सुनूॅं आसमाँ से मैं
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