अपनो में रहते हुए ग़ैरों से सोहबत हो गई
जाने अंजाने में हमसे ये शरारत हो गई
तुम न मानो ये तुम्हारी अक़्ल है मेयार है
मैं तो अब भी कह रहा मुझको मुहब्बत हो गई
तुम किसी का नाम लेके क्यों चिढाओगे उसे
अब दिवानो देखना अब तो बग़ावत हो गई
जब मशीनें आदमी के दिल को नइँ अपना सकीं
आदमी को आदमी की तब ज़रूरत हो गई
मैं बहुत पहले से तुमको चाहता था या कि यूँ
बस तुम्हारे छूने से मुझको मुहब्बत हो गई
कोई आख़िर कब तलक ही कर्म के विपरीत हो
लाख दीवाना रुका पर रक़्स-ए-वहशत हो गई
राज़ जब हमपे खुला तो हम भी हैराँ हो गए
कैसे कोई ग़ैर मर्ज़ी अपनी क़िस्मत हो गई
इस बदलते दौर की तस्वीर को भी देखिए
दुनिया को अब प्यार की कितनी ज़रूरत हो गई
जानवर को जानवर से उतनी भी नफ़रत नहीं
आदमी को आदमी से जितनी नफ़रत हो गई
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