हम बुलाए कभी आप आए कभी ख़ैर ये भी सही
दिल की बस्ती मुसलसल उजड़ती रही ख़ैर ये भी सही
तुम कहे थे मुहब्बत में मर जाएँगे हम गुज़र जाएँगे
वक़्त आया तो तुम यार बदले तभी ख़ैर ये भी सही
ज़िंदगी में कई लोग आए गए सब तमाशा किए
ज़िंदगी एक झालर के जैसी लगी ख़ैर ये भी सही
पेट भरने का कोई सबब तो मिले एक गुल तो खिले
दिल है इक जौ उसाता हुआ आदमी ख़ैर ये भी सही
मेरे लोगों ने मुझसे बहुत कुछ कहा और बहुत कुछ सहा
फिर भी छूटी नहीं मेरी आवारगी ख़ैर ये भी सही
लोग कहते हैं 'राकेश' जैसा बनो चाहे कुछ भी करो
लोग मिलते नहीं थे भले उस घड़ी ख़ैर ये भी सही
As you were reading Shayari by Rakesh Mahadiuree
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