लोग कहते हैं कि आशिक़ी से बढ़के कुछ नहीं
मुझको लगता है प ज़िंदगी से बढ़के कुछ नहीं
मानता हूँ इस जहाँ में और भी है रिश्ते सब
मेरे वास्ते तेरी, दोस्ती से बढ़के कुछ नहीं
कोई पूछे इनसे कुछ मिला है, जो ये कहते है
दुनिया में खुदा की बंदगी से बढ़के कुछ नहीं
एक अंधे को मैं ने सड़क पे देखा कल, मुझे
तब समझ में आया बेबसी से बढ़के कुछ नहीं
है हसीं जहाँ में और भी मैं जानता हूँ पर
जान तेरी ख़ूबसूरती से बढ़के कुछ नहीं
उसको जब छुआ तो फूल सी लगी वो हाथ में
तब ख़बर हुई कि नाजुक़ी से बढ़के कुछ नहीं
मैं कई दफ़ा भी सोचता हूँ बैठके ‘करन‘
इस जहां में क्या ये दिल्लगी से बढ़के कुछ नहीं?
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