मेरे ग़म से मुझको फ़ुर्सत ही नहीं - ABhishek Parashar

मेरे ग़म से मुझको फ़ुर्सत ही नहीं
बे-वजह हँसने की आदत ही नहीं

ज़िंदा रहना थोड़ा मुश्किल काम है
मरने में तो कोई दिक़्क़त ही नहीं

हिज्र उसका क्यों मनाऊँ मैं भला
जब उसे कोई ग़रामत ही नहीं

इश्क़ की चाहत लिए फिरता रहा
जबकि मेरे पास दौलत ही नहीं

मेरे कहने से भला क्या होगा अब
उसको तो मुझसे मोहब्बत ही नहीं

लाख अच्छा दिल लिए घूमो मगर
अच्छे दिल की कोई क़ीमत ही नहीं

मैं जिसे चाहूँ मुझे मिल जाए वो
इतनी अच्छी मेरी क़िस्मत ही नहीं

ये मुझे किस बात का है इतना दर्द
जब मुझे कोई उक़ूबत ही नहीं

आप उसको सच्चा आशिक़ कहते हैं
जिस्म से जिसको मोहब्बत ही नहीं

कैसे मैं अपनी हवस पूरी करूँ
मेरे वश में कोई औरत ही नहीं

- ABhishek Parashar
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