वा’दा-ए-वस्ले-यार ले डूबा
फिर मुझे ऐ’तिबार ले डूबा
वस्ल का वक़्त गुज़रा लम्हों में
हिज्र का इंतिज़ार ले डूबा
इस क़दर मय पी क़र्ज़ की मैंने
आख़िरश ये उधार ले डूबा
आँखों को इंतिज़ार है उसका
बस यही रोज़गार ले डूबा
इक अजब इश्क़ की ख़ुमारी थी
मुझको तेरा ख़ुमार ले डूबा
आँखों से अश्क तक छलकते नहीं
दर्द पर इख़्तियार ले डूबा
यार पर क्यों यक़ीं करे ‘ताहिर‘
यार दरिया के पार ले डूबा
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