हमने इक ज़ख़्म को बचपन से हरा रक्खा है
उसकी तस्वीर को सीने से लगा रक्खा है
इसलिए भी न कही बात कभी दिल की उसे
दिल वो देखेगा नहीं बात में क्या रक्खा है
नींद में भूल गया उसने बुझाया न दिया
हम नहीं सोए कि खिड़की पे दिया रक्खा है
आस में कितने परिंदे हैं उसे इल्म नहीं
आज भी पेड़ के नीचे वो घड़ा रक्खा है
एक लड़की है फ़क़त एक ही लड़की मेरे दोस्त
शहर के शहर को दीवाना बना रक्खा है
वो ही देता है मेरे ग़म के शजर को पानी
मैंने जिस शख़्स को आँखों में बसा रक्खा है
हमको मालूम है 'मोहित' वो नहीं आएगा
हमने जिसके लिए दरवाज़ा खुला रक्खा है
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