न जाने क्यों लगा वो था कोई अपना मेरे आगे
मुझे ऐसा लगा परमात्मा ही था मेरे आगे
ज़रा धीमा हुआ और फिर थमा लम्हा मेरे आगे
इधर जब वो पहन कर आ गया झुमका मेरे आगे
ज़रा देखा मुझे नज़रें मिलाकर मुस्कुराए वो
न जाने क्यों तभी मचने लगा हल्ला मेरे आगे
कभी जो वक़्त से मैंने कहा बस रुक ही जाना तुम
घड़ी ने थाम कर रोका किया पल्ला मेरे आगे
हुए टुकड़े घरों के बँट गए हैं चंद पैसों में
कहे मुझसे बताओ तो हैं अपने क्या मेरे आगे
हवाओं ने किया फिर से जुदा उस पेड़ से उसको
गिरा वो टूट कर टूटा हुआ पत्ता मेरे आगे
न बैठे वो न बोले कुछ मिले और बस लगे जाने
तड़प कर फिर से देखो आ गया सपना मेरे आगे
क़लम भी 'दिव्य' देखो रख न पाई राज़ अपने तक
क़लम कहने लगी सुनता रहा पन्ना मेरे आगे
As you were reading Shayari by Divya 'Kumar Sahab'
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