जनाब-ए-क़ैस ये तारीख़ से हवाला है
तुम्हारा मुल्क-ए-मुहब्बत में बोल-बाला है
निज़ाम-ए-मुल्क-ए-सनम किस क़दर निराला है
किसी के हाथ में पत्थर किसी के भाला है
तुम्हारा नाम न लेता तो गिर गया होता
तुम्हारे नाम ने अब तक मुझे सँभाला है
ज़मीं क़ुबूल करे और न आसमान क़ुबूल
ये कह के उसने मिरी ख़ाक को उछाला है
तमाम उम्र इसी इक ख़ता पे रोओगे
ख़ुशी के साथ जो दिल से हमें निकाला है
तुम्हारी याद में हम दिल जलाए बैठे हैं
यूँ आज चारों तरफ़ शहर में उजाला है
नज़र के तीर चलाए अदा से क़त्ल करे
ये ज़ेब देता है उसको जो हुस्न वाला है
किसी के हिज्र में हम ख़ुद को क्यों तबाह करें
हमारी माँ ने हमें हसरतों से पाला है
दिल-ए-चमन में है मजलिस 'शजर' है महव-ए-फ़ुग़ाँ
ख़िज़ाँ ने जिस्म गुलाबों का नोच डाला है
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