एक मुद्दत तक तो इश्क़ाना चला
शम्अ से फिर दूर परवाना चला
ख़ुद ब ख़ुद होने लगीं गुल पोशियाँ
जिस तरफ़ भी तेरा दीवाना चला
शाम ढलते याद आया बे-वफ़ा
और शब भर दौर-ए-पैमाना चला
दुश्मनों के नाम भी खुलते गए
जब ग़ज़ाला का भी अफ़्साना चला
रात भर ज़हनों में सुलगी नफ़रतें
रात भर काबा-ओ-बुतख़ाना चला
कर दिया चित इश्क़ ने साहिल हमें
इक पियादा भी न इक ख़ाना चला
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