सियाह शब है वो आएँ तो दो घड़ी के लिए

  - A R Sahil "Aleeg"

सियाह शब है वो आएँ तो दो घड़ी के लिए
हो शम्अ कोई फ़रोज़ाँ तो रौशनी के लिए

अब उसके सामने सूरज रखो कि कोई चराग़
नज़र नहीं तो अँधेरा है आदमी के लिए

तमाम गाड़ियाँ बँगला ग़ुलाम माल-ओ-ज़र
ये तामझाम हैं दो दिन की ज़िंदगी के लिए

तुम्हारे हुस्न की रंगत के आगे फीके हैं
हज़ार चाँद भी रख दें जो हम-सरी के लिए

न आदमी कहीं कर दे तबाह ये दुनिया
किसी को भेज ख़ुदा फिर पयम्बरी के लिए

ये मशवरा है न दें जान इश्क़ में अपनी
मक़ाम और भी बाक़ी हैं ख़ुद-कुशी के लिए

हर एक शख़्स की आँखों का ज़ाविया है अलग
हूँ कुछ किसी के लिए मैं तो कुछ किसी के लिए

अमीर-ज़ादों की ख़ातिर हुआ है पैदा इश्क़
ये शय बनी ही नहीं आम आदमी के लिए

तमाम ग़म हैं अभी मेरे रोने को 'साहिल'
मैं हँस रहा हूँ मगर तेरी ही ख़ुशी के लिए

  - A R Sahil "Aleeg"

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