कभी पिएगा जो आँसुओं की शराब काग़ज़
बताएगा तब मेरे ग़मों का हिसाब काग़ज़
कभी बनाते थे काग़ज़ों पर गुलाब हम भी
बिछड़ के लगता है तुझ से अब तो गुलाब काग़ज़
तुम्हारे ख़त का कई बरस से यूँ मुंतज़िर हूँ
हो जैसे मेरा बक़ाया बस इक ही ख़्वाब काग़ज़
मैं किस से पूछूँ पता तुम्हारा कि अजनबी हूँ
हर एक इंसान पूछता है जनाब काग़ज़
दबाए ज़िक्र-ए-वफ़ा पड़े थे दराज़ में जो
जला दिए हैं मैं ने वो सारे किताब काग़ज़
तुम्हारी यादों की है ये एलबम लहू से तर यूँ
कि काग़ज़ों का कबाब हैं या कबाब कागज़
ख़राब करने से काग़ज़ों को न शेर होगा
किए है फिर भी मैं ने मुसलसल ख़राब काग़ज़
ये नाव साहिल पे डूब जाएगी देख लेना
न झेल पाएगा लहरों के तैश-ओ-ताब कागज़
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