चाँद पाने को दिल ये मचलता रहा
जब मिला तो वो शक्लें बदलता रहा
रस्म-ए-उलफ़त की डोरी न टूटी कभी
वह भी चलता रहा मैं भी चलता रहा
दुश्मनों से नहीं डर रफ़ीक़ों से था
वह गिराते रहे मैं सँभलता रहा
ज़िन्दगी की घड़ी तेज़ चलती रही
रात ढलती रही दिन फिसलता रहा
नफ़रतों के नगर प्यार की बस्तियाँ
रेल चलती रही सब निकलता रहा
हम तमाशाई 'असलम' बने रह गए
ये जहाँ आसमाँ को निगलता रहा
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