ज़माना भी बुलंदी पर मुझे अपना बताता है
मगर अफ़सोस गर्दिश में मुझे आँखें दिखाता है
वो जिसको मेरी हर इक बात पहले ज़हर लगती थी
वो अपने बच्चों को मेरी ही अब ग़ज़लें सुनाता है
परिंदे डर गए हैं, मर गए हैं ख़ौफ़ से तेरे
कि तेरा नाम सुनते ही कबूतर फड़फड़ाता है
तेरी यादों का ये सैलाब दिल से क्यों नहीं जाता
मुझे रह-रह के तेरे खूनी आँसू में डुबाता है
मुझे रोने नहीं देती ये ज़िम्मेदारियाँ घर की
अकेला होता हूँ तो दिल बहुत ही टूट जाता हैं
दुआएँ साथ चलती हैं मेरे माँ-बाप की यारों
कोई भी हादसा हो, मेरे आगे सर झुकाता हैं
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