लफ़्ज़ों के ये नगीने तो निकले कमाल के

  - Krishna Bihari Noor

लफ़्ज़ों के ये नगीने तो निकले कमाल के
ग़ज़लों ने ख़ुद पहन लिए ज़ेवर ख़याल के

ऐसा न हो गुनाह की दलदल में जा फँसूँ
ऐ मेरी आरज़ू मुझे ले चल सँभाल के

पिछले जन्म की गाढ़ी कमाई है ज़िंदगी
सौदा जो करना करना बहुत देख-भाल के

मौसम हैं दो ही इश्क़ के सूरत कोई भी हो
हैं उस के पास आइने हिज्र-ओ-विसाल के

अब क्या है अर्थ-हीन सी पुस्तक है ज़िंदगी
जीवन से ले गया वो कई दिन निकाल के

यूँ ज़िंदगी से कटता रहा जुड़ता भी रहा
बच्चा खिलाए जैसे कोई माँ उछाल के

ये ताज ये अजंता एलोरा के शाहकार
अफ़्साने से लिखे हैं उरूज-ओ-ज़वाल के

  - Krishna Bihari Noor

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