इंतिक़ाम से पुकारता रहा कभी कोई
रोष ख़ूब ही उतारता रहा कभी कोई
अजनबी मुझे मिले हर एक मोड़ पर यहाँ
रात दिन कहीं गुज़ारता रहा कभी कोई
दश्त में न पेड़ आम से दिखा लदा हुआ
आम पेड़ से उतारता रहा कभी कोई
कश्मकश मुसीबतें जगह जगह बहुत दिखीं
क्यों ग़रीब को निहारता रहा कभी कोई
जंग की ज़मीं पे ही बुझे कई चराग़ हैं
अस्त्र क्यों नए उतारता रहा कभी कोई
खेल सिर्फ़ खेलता रहा अदू वहाँ कोई
झूठ बात वो पुकारता रहा कभी कोई
बात अम्न की करे सिवा दिल-ओ-दिमाग़ से
जोश महज़ ही उतारता रहा कभी कोई
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