ग़म में दिल मुब्तला नहीं होता
अब तिरा तज़्किरा नहीं होता
कुछ न कुछ वास्ता तो रहता है
जिस से कुछ वास्ता नहीं होता
तुम नहीं जानते मोहब्बत में
फ़ासला, फ़ासला नहीं होता
किस तरह दोस्तों को समझाऊँ
उस से अब राब्ता नहीं होता
सब को हैरत है मेरी हालत पर
मैं कि हैरत-ज़दा नहीं होता
कैसे कह दूँ उसे मोहब्बत है
वो तो मुझ से ख़फ़ा नहीं होता
ज़ख़्म-ए-उल्फ़त वो ज़ख़्म है जिस में
कोई मरहम दवा नहीं होता
लाख करता हूँ कोशिशें "अशरफ़"
तर्क-ए-अहद-ए-वफ़ा नहीं होता
As you were reading Shayari by Meem Maroof Ashraf
our suggestion based on Meem Maroof Ashraf
As you were reading undefined Shayari