छुपते-छुपते वो मुझे देख के अँगड़ाती है
थोड़ा इठलाती है शरमाती है घबराती है
उसको देखूँ तो बहक जाने को कहता है ये दिल
और फिर उसपे भी आँखों से वो बतियाती है
मेरी नज़रों में नज़ारों की तरह बस तो गई
ग़ौर से देखूँ ज़रा सा भी तो छुप जाती है
वैसे कोयल सी चहकती मैं उसे सुनता हूँ
सामने आऊँ तो कुछ कहने से कतराती है
मुझको लगता वो चकोरी है कि बिछड़ी चकवी
शाम होते ही जो छज्जे पे चली आती है
मैं जो चलता हूँ तो चलती है ज़रा सा आगे
मैं जो रुक जाऊँ तो फिर हौले से रुक जाती है
ख़्वाब उपमन्यु तुम्हारा है ये कुछ और नहीं
ज़िंदगी तुमको ख़यालों में यूँ उलझाती है
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