सच कहूँ ऐ दोस्तों सच से मुहब्बत है मुझे
झूठ की जड़ खोदने की सच में आदत है मुझे
दिल पे पत्थर रख के मैंने उनसे नज़रें फेर लीं
रंच भर भी अब नहीं उनसे शिकायत है मुझे
बारहा ख़्वाबों में तक आने न दूँगा उस को मैं
इस-क़दर उस बेवफ़ा से अब अदावत है मुझे
नागफनियों से बसर ये ज़िंदगी होगी मगर
उस फ़रेबी की नहीं बिलकुल ज़रूरत है मुझे
रूह तक मैंने जलाई है उजालों के लिए
तब कहीं जाकर मिली थोड़ी नफ़ासत है मुझे
मेरे हिस्से में वफाएँ क्यों नहीं आईं कभी
ऐ मेरी तक़दीर तुझसे यह शिकायत है मुझे
"नित्य" अंगारे बिछा ख़ंजर बिछा या क़त्ल कर
मंज़िलों पर आने की फिर भी हिमाक़त है मुझे
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