बेबस हूँ तड़पता हूँ मैं हज के महीने में
मुझको भी बुला लीजे सरकार मदीने में
तैबा का नगर होता चौखट पे जबीं होती
कुछ लुत्फ़ नहीं आक़ा बिन आप के जीने में
क्यूँ महके न ये आलम ईमान की ख़ुशबू से
जब ख़ुशबू ही ख़ुशबू है आक़ा के पसीने में
भर देंगे मेरा दामन जब चाहे मुरादों से
रहमत की कमी क्या है आक़ा के ख़ज़ीने में
आफ़ात ज़माने की क्या मुझको सताएँगी
जब नाम-ए-नबी मैंने लिख रक्खा है सीने में
हो जाए न गुस्ताख़ी भूले से रज़ा कोई
ये बस्ती नबी की है तू रहना क़रीने में
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