ज़िंदगी रोज़ कोई ताज़ा सफ़र माँगती है
और बेचारी थकन शाम को घर माँगती है
तुझ से मैं कैसे मिलूँ कैसे निभाऊँ रिश्ता
दुश्मनी भी तो बहरहाल हुनर माँगती है
पहले ताईद तलब करते थे रहबर अपने
इन दिनों कैसी सियासत है जो सर माँगती है
हर क़दम पर रसन-ओ-दार दिखाई देंगे
पैरवी सच की मेरे यार जिगर माँगती है
मुझ को सूली पे चढ़ाकर भी दुखी है दुनिया
वो मेरी मौत नहीं आँखों में डर माँगती है
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