ख़ुशी का ज़िक्र दो पल का बराए-नाम लगता है
यहाँ हैं मरहले ऐसे कि जीना काम लगता है
नुमाइश है यहाँ लगती जमाल-ए-जिस्म की हर-सू
बिखेरा जिस क़दर इस्मत को उतना दाम लगता है
ग़रीबी जो अमीरी के तले कुचली गई कल रात
सहर होते किसी मज़दूर पर इल्ज़ाम लगता है
उलझती सी डगर है ज़िंदगी चलते हुए जिसमें
नया दर और पेच-ओ-ख़म नया हर गाम लगता है
मिरे कूचों में दिल के था बड़ा मशहूर जो इंसान
वही फिर बाम-ए-माज़ी से बड़ा गुमनाम लगता है
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